Friday, July 18, 2008

जीवन का है खेल निराला

जीवन का है खेल निराला
तुम देखो और मैं देखूँ,
जैसे बुना मकड़ी का जाला
तुम देखो और मैं देखूँ ।

रंग बिरंगे लोग हैं जैसे
रंग बिरंगे फूल सभी,
खुशबू न देखे गोरा काला
तुम देखो और मैं देखूँ ।

कान्हा का जब नाम मिला तो
मीठे बन गये कड़वे बोल,
जहां बना अमृत का प्याला
तुम देखो और मैं देखूँ,

यां जाने यह माता यशोदा
यां जाने यह नंद बाबा,
दोनों ने कैसे कान्हा पाला
तुम देखो और मैं देखूँ ।

कवि कुलवंत सिंह

टिप्पणी - श्री भगवान दास पहलवानी जी ने अपने आशिर्वाद स्वरूप यह कविता मुझे भेंट की है। उनको नमन करते हुए कविता प्रस्तुत है ।


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6 पाठकों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

पहलवानी जी को नमन
आलोक सिंह "साहिल"

BRAHMA NATH TRIPATHI का कहना है कि -

जीवन का है खेल निराला
बहुत अच्छी कविता

Dr. Zakir Ali Rajnish का कहना है कि -

Sundar kavita hai, badhaayi.

GOPAL K.. MAI SHAYAR TO NAHI... का कहना है कि -

वाह, अच्छी कविता है..!!

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

बढिया कविता..
पहलवान जी को बधाई..
इस प्यारी कविता के लिये
कवि जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद

kavi kulwant का कहना है कि -

Thanks a lot to all of you dear friends!

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