Wednesday, November 21, 2007

पर्यटन - कुहू का बस्तर भ्रमण – भाग 1

(सामान्य परिचय, बस्तर का इतिहास, बारसूर एवं दंतेवाडा के प्रमुख स्थलों की सैर)


प्यारे दोस्तों,
घूमने का मजा उठाना हो तो मन में अप्पूघर और वाटरपार्क का ख्याल ही आता है। मैं तो कहती हूँ ये भी कोई मजा करना हुआ? आईये मैं आपको एसे स्थल की सैर करवाती हूँ कि आप चौंक उठेंगे।



अगर आप मानते हैं कि धरती पर स्वर्ग है, लेकिन कहाँ, यह नहीं जानते तो मध्य-भारत के छत्तिसगढ राज्य के बस्तर क्षेत्र की यात्रा अवश्य करें। एसे सघन वन कि भीतर धूप भी प्रवेश करने से कतराती हो। सागवान के विशाल दरख्तों और बाँस के घने जंगलो के भीतर मनोरम घाटियाँ, गुफायें, नदी, निर्झर और प्राचीन इतिहास इस तरह बिखरा हुआ है कि इस मनोरम में मन रम जाता है। चलिये बस्तर की यात्रा पर चले। बस्तर क्षेत्र तीन जिलों से मिल कर बना है, बस्तर, काँकेर और दंतेवाडा जिला। 1999 में अपने विभाजन से पूर्व ये तीनों ही जिले मिल कर संयुक्त बस्तर जिले को 39114 वर्ग किलोमीटर का विस्तार देते थे, जो कि केरल जैसे राज्य या कि बेल्जियम और इज्रायल जैसे देशों से भी अधिक था। यह तो अब बीते जमाने की बात हो गयी लेकिन जो नही बीता वह है इस क्षेत्र की नैसर्गिकता।


यह मान्यता है कि इस वनक्षेत्र में जिसे दंडकारण्य के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्रीराम नें अपने वनवास का अधिकतम हिस्सा काटा था। तथापि बस्तर के इतिहास पर प्रामाणिक जानकारी 11वीं शताब्दी के नागवंशी राजाओं के शासन के दौरान के अवशेषों से प्राप्त होती है जिनकी राजधानी वर्तमान दंतेवाड़ा नगर के निकट बारसूर हुआ करती थी। यह राजवंश चक्रकोट नाम से भी जाना जाता है जिसका विलय बाद में वारंगल के काकतीय राजवंश में हो गया। 1424 ई. में महान काकतीय राजा प्रतापरुद्र देव के भाई राजा अन्नमदेव नें बारंगल छोड कर बस्तर में काकतीय प्रशासन कायम किया। किंतु उनके तीन पीढियों के शासन के पश्चात बस्तर में इस परिवार की शाखा समाप्त प्राय हो गयी और डोंगर तथा बस्तर का शासन राजा राजपालदेव के हाथों में आ गया।




बच्चों इतिहास में राजा रानी की कहानी ईर्ष्या-द्वेष और प्रतिस्पर्धा के बिना समाप्त नहीं हो सकती। राजा राजपाल देव की दो रानियाँ थीं बघेलिन तथा चंदेलिन। रानियों की स्वाभाविक आपसी ईर्ष्या के फलस्वरूप महाराज राजपाल देव की मृत्यु के पश्चात जैसे ही घरेलू राजनीति से असल वारिस रानी चंदेलिन के पुत्र दलपल देव को बेदखल कर दखिन सिंह को शासन प्राप्त हुआ वैसे ही निष्काशित दलपत देव नें जयपोर (उडीसा) में शरण ली और जयपोर राजवंश की सहायता से बस्तर पर पुन: अपना शासन प्राप्त किया। इतिहास इसी उतार चढाव और ताकत की दास्तां है जहाँ अपने ही बंधु बांधवों से गलाकाट प्रतिस्पर्धा राजगद्दी दिलाती रही थी। बस्तर भी इससे अछूता नहीं था। खास बात यह कि जयपोर और रायपुर के शासकों की ताकत नें भी इस वन क्षेत्र की राजनीति को यथासमय खासा प्रभावित किया है। राजा दलपत देव नें ही बस्तर की राजधानी जगदलपुर में स्थापित की। राजा दलपत देव की मृत्यु के पश्चात के प्रमुख राजा रहे – दरयाव देव, अजमेर सिंह, महिपाल देव, भोपाल देव और भैरम देव।

राजा भैरम देव के समय अंग्रेज अपने पैर भारतभर में पसार चुके थे और बस्तर भी इससे अछूता नहीं रहा। उनके शासन काल में दीवान की अदूरदर्शिता और मनमानी के फलस्वरूप हुए एक गोली काँड में क्षेत्र के कुछ मुरिया आदिवासियों की मौत हो गयी। सन 1876 की इस घटना के बाद एक तरह से अंग्रेजों नें शासन को हथिया लिया और क्षेत्रीय प्रशासन कठपुतली हो गया। 1883 में राजा को पद से हटा कर अंग्रेजों नें उनके खिलाफ जाँच बिठा दी जिसमें उनपर लगे आरोप सिद्ध न हो सके। भैरम देव 1886 में पुन: राजा हुए किंतु अंग्रेजो के नियुक्त दीवान और नीयमों के साथ। यह अंग्रेजों की बस्तर पर शासन की शुरुआत थी। राजा भैरमदेव 1891 में स्वर्गवासी हुए और सिंहासन अंग्रेजों के नियुक्त दीवानों की सरपरस्ती में नाबालिग राजा रुद्रप्रताप देव के हाँथों में चला गया। एसा नहीं था कि बस्तर की जनता जागरूक नहीं थी और अंग्रेजी हुकूमत को चुप रह कर बर्दाश्त करती रही। 1910 का आदिवासी विद्रोह इस दिशा में मील का पत्थर है जिसने अंगेजी शासन और नियुक्त दीवान की ईंट से ईंट बजा दी थी।

1921 में राजा रुद्रप्रताप देव की मृत्यु के पश्चात शासन उनकी पुत्री रानी प्रफुल कुमारी देवी के हाँथों मे चला गया। 1927 में उनका विवाह मयुरभंज (उडीसा) के राजपरिवार में राजा प्रफुल कुमार भंजदेव के साथ हुआ। महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी की 1936 में लंदन में मृत्यु हुई जिसके पश्चात 1937 में उनके वरिष्ठ पुत्र महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव बस्तर के शासक हुए। महाराज प्रवीर चंद्र भंजदेव ‘काकतीय’ आज भी बस्तर और आदिवासी समाज में ईश्वर की तरह पूजे जाते हैं। 1948 में बस्तर राज्य का भारतीय गणराज्य में विलय हो गया और यह स्वतंत्र भारत का हिस्सा बना।

( दशहरे में होने वाली प्रसिद्ध रथयात्रा में प्रयुक्त रथ के पास खडे मेरे पापा - कुहू)

दोस्तों, इतिहास की चर्चा इस लिये आवश्यक है कि जब मैं आपको बस्तर के भीतर बिखरे मंदिरों, मूर्तियों और भग्नावशेषों से परिचित कराने लगूं तो आप उससे जुड सकें। यात्रा का प्रारंभ बस्तर की प्राचीन राजधानी बारसूर से करते हैं जहाँ पुराने मंदिरों में अब भी संरक्षित हैं 8 फीट उँची प्रचीन गणेश प्रतिमा। प्रतिमा के चारों ओर टूटे हुए मंदिर के प्रचीन स्तंभ और अवशेश अवस्थित हैं।


एक और प्राचीन मंदिर जिसे स्थानीय “मामा-भाँजा” का मंदिर के नाम से भी जानते हैं यह 50 फीट उँचा मंदिर अब भी पूर्णत: संरक्षित स्थिति में है।
मामा भाँजा के प्राचीन मंदिर से कुछ ही दूरी पर 32 स्तंभों पर खडा अति प्राचीन शिव मंदिर भी है। कुछ किंवदंतिकार इसे सिंहासन बत्तीसी की कहानियों से भी जोडते हैं। यथार्थ जो भी हो इस सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह मंदिर दर्शनीय है।
बारसूर में प्राचीन गौरव के अवशेश देखते हुए मनोरम पहाडी रास्तों से हो कर निकट से ही बह रही इन्द्रावती नदी के प्रस्तावित बोधघाट जलविद्युत परियोजना द्वारा बनाये गये पुल तक पहुँचा जा सकता है। इस स्थल के पास नदी सात धाराओं में बँट कर बहती है और प्रकृति निर्मित यह दृश्य देखते ही बनता है।

और अब पास ही दंतेवाडा नगर चलते हैं। माँ दंतेश्वरी का भव्य प्राचीन मंदिर और मंदिर के भीतर प्राचीन मूर्तियों की विरासत देखते ही बनती है।
माँता दंतेशवरी की इस क्षेत्र में मान्यता उत्तर भारत के माता बैष्णो मंदिर जैसी ही है।

पास ही भैरव और प्रचीन शिव मंदिर भी दर्शनीय हैं।

दंतेश्वरी माता के मंदिर के पीछे माता दंतेश्वरी के पैरों के निशान साथ ही पवित्र शंखिनी और ड़ंकिनी नदियों का संगम भी है।
दोस्तों आज इतना ही।
अगले बुद्धवार को इस यात्रा के अगले हिस्से में आप सभी को मैं बस्तर के अन्य दर्शनीय स्थलों के भ्रमण पर ले चलूंगी।

- आपकी कुहू।



प्रस्तुति:

*** राजीव रंजन प्रसाद


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12 पाठकों का कहना है :

अभिषेक सागर का कहना है कि -

राजीव जी,

बहुत जानकारी भरा और सुंदर भ्रमन....

बहुत अच्छा लगा...

हमे भी जाना चाहिये

रंजू भाटिया का कहना है कि -

वाह:) कुहू ने तो अपने साथ हमे भी सैर करवा दी ..:) बस्तर तो बहुत सुद्नर जगह है
बहुत ही प्यारा लिखा है !!

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -
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भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

कुहू डीयर.. बहुत अच्छा देशाटन करा दिया..

क्या मीठी मीठी यादें संजोकर लायी हो आप.. और उनका वर्णन मानो कोई पारंगत शास्त्री रिपोर्ताज लिख रहा हो,

अथातो घुमक्कड जिज्ञासा..

घर बैठे ही सैर कराई,
बस्तर के इतिहास की.
गढ औ मन्दिर किले घुमाये,
और बातें आस-पास की
कूहू थेंक यू कूहू थेंक यू
कूहू थेंक यू कूहू थेंक यू

Anonymous का कहना है कि -

४० साल पहले रायपुर के ब्राह्मणपारा में पैदा हुआ लेकिन उसके बाद छत्तीसगढ़ कभी जाना ही नहीं हुआ। माता-पिता से वहां के किस्से सुनता रहा हूं, इस बार दिसंबर में छुट्टियों में बच्चों को साथ लेकर ज़रूर जाऊंगा।

Sajeev का कहना है कि -

कुहू की यात्रा सचमुच बेहद बेहद लाजवाब रही, राजीव जी बहुत ही सुंदर वर्णन पेश किया है आपने, बिल्कुल कुछ पलों के लिए तो बस्तर ही पहुँच गया था और एक बात, आप भी कुछ कम बढ़िया photographer नही हैं, खास कर जो सबसे पहली तस्वीर है, जबरदस्त है

विश्व दीपक का कहना है कि -

कुहू के साथ मैने बस्तर की सैर कर ली। उसने इतनी सारी सुंदर-सुंदर और रोचक जानकारियाँ दीं कि दिल खुश हो गया। मुझे तो बहुत मजा आया। कुहू को भी आया हीं होगा! है ना......

-विश्व दीपक 'तन्हा'

Mohinder56 का कहना है कि -

राजीव जी,

बस्तर के बारे में बहुत सी रोचक जानकारी दी है आपने जो शायद अकेले भ्रमण करने पर भी प्राप्त न होती.. सुन्दर लेख व चित्र... बधाई

Dr. Zakir Ali Rajnish का कहना है कि -

बहुत ही रोचक और ज्ञानवर्द्धक जानकारी दी है आपने। साथ में दिये गये फोटोग्राफ तो प्यारे हैं ही। और हां, कूहू बेटी भी बहुत प्यारी लग रही है। इस सुंदर और अनोखी पोस्ट के लिए बधाई।

anuradha srivastav का कहना है कि -

आपका यात्रा वृतान्त पढ कर निश्चय किया की अब तो बस्तर घूमने जाना ही पडेगा ।

शोभा का कहना है कि -

कुहू बिटिया
बस्तर के विषय में इतनी जानकारी देने के लिए धन्यवाद । मन कर रहा है कि वहाँ अभी जाऊँ । तुमने उत्सुकता बढ़ा दी । चित्र भी बहुत सुन्दर लगे । आगे भी तुम जहाँ जाओ वहाँ से हमको भी परिचित कराती रहना । बहुत=बहुत प्यार एवँ आशीर्वाद के साथ

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

कुहू तुम्हारी पीढ़ी के बच्चे इतनी सुंदर हिन्दी लिखते हैं, ये तो हमारे टाइम वाले भी नहीं बोलते। अगली बार शब्द सेलेक्ट करते वक़्त बच्चों की भाषा का ख्याल रखना।

आपने फ़ोटो और जानकारी बहुत सुंदर तरीके से समायोजित की है।

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