मैं ककड़ी पर नहीं कड़ी
नाजुक बदन रंग है धानी
मैं बनती सलाद की रानी
दुबली-पतली और लचीली
कभी-कभी पड़ जाती पीली
सबकी हूँ जानी-पहचानी
मुझमे होता बहुत ही पानी
गर्मी में होती है भरमार
हर सलाद में मेरा शुमार
करते सब हैं तारीफें मेरी
खीरे की मैं बहन चचेरी
हर कोई लगता मेरा दीवाना
हो गरीब या धनी घराना
खाने में करो न सोच-बिचार
हल्का-फुल्का सा हूँ आहार
विटामिन ए, सी और पोटैसियम
सब रहते हैं मुझमें हरदम
मौसम के हूँ मैं अनुकूल
आँखें हो जातीं मुझसे कूल
अंग्रेजी में कहें कुकम्बर
खाते हैं सब बिन आडम्बर
ब्यूटीपार्लर जो लोग हैं जाते
पलकों पर हैं मुझे बिठाते
मुखड़े करती मलकर सुंदर
दूर करुँ विकार जो अन्दर
स्ट्राबेरी संग प्याज़, पोदीना
मुझमें मिलकर लगे सलोना
बटर, चीज़ संग टमाटर
मुझे भी रखो सैंडविच के अंदर
कभी अकेले खाई जाती
कभी प्याज-गाज़र संग भाती
अगर रायता मुझे बनाओ
उंगली चाट-चाट कर खाओ
यदि करते हो मुझको कद्दूकस
तो नहीं फेंकना मेरा रस
गोल-गोल या लम्बा काटो
खुद खाओ या फिर बांटो
सिरके में भी मुझको डालो
देर करो ना झट से खा लो
और भी सोचो अकल लगाकर
सब्जी भी खाओ मुझे बनाकर.
--शन्नो अग्रवाल
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7 पाठकों का कहना है :
वाह शन्नो जी.........बहुत ही बढ़िया लिखा है,बाल उद्यान को सुगन्धित कर दिया
रश्मि जी,
बाल-उद्यान की रचनाएँ पढने के लिये भी और मेरी रचनाओं को भी पढ़कर जो आपने पसंद किया उसके लिये अति धन्यबाद. आपके इन शब्दों ने तो मेरे मन में सुगंध सी बिखेर दी है. और यह ताजी-ताजी उगती हुई ककड़ियों की तस्वीर का कमाल तो हमारे नियंत्रक जी की काबिलियत का है की खेत के सीन को बाल-उद्यान पर ले आये. उसके लिये मैं उनकी शुक्रगुजार हूँ. कभी ककड़ियों के खेत नहीं देखे थे तो वह तमन्ना भी पूरी हो गयी......और वह भी इतनी सारी एक साथ उगती हुई देखने को मिलीं. वाह!!
शन्नो जी,
भारत में अभी कहीं भी ककड़ी नहीं मिल रही है। खीरा ज़रूर बिक रहा है। आपने हम बच्चों पर ककड़ी की याद दिलाकर एक तरह से ज़ुल्म किया है।
अब तो गाज़र, मूली, मटर का समय शुरू होने वाला है। ककड़ी का समय आने में 4 -5 महीने का टाइम है।
शन्नोजी,
आपका ककड़ी का चित्रण बहुत ही बढ़िया एवं असरदार है । कविता बहुत ही सुन्दर बन पड़ी है ।
bahut khoob bahut khoob shanno ji..
ख़ुशी हुई पढ़कर की अनिल जी और कुलवंत जी को भी कविता पसंद आई. आप लोगों को भी धन्यबाद.
और शैलेश जी, आगे से बाल-उद्यान में बच्चों की शिकायतों का भी ध्यान रखा जायेगा. बात तो सही है की ककडी का मौसम नहीं है ....लेकिन अब तो कविता लिखकर छप भी गयी......अब क्या हो? मैंने तो केवल कविता ही लिखी है लेकिन तस्वीर तो इतनी प्यारी है की मैं प्रशंशा करे वगैर नहीं रह सकी लगता है की जैसे मेरे हाथ खेत की मिटटी का भी स्पर्श कर रहे हों. वैसे गर्मी आने तक आप बच्चे लोग इस तस्वीर को ही अक्सर देखकर काम चलायें और अपने मन को तसल्ली दें. इन दिनों ककडी की वजाय गाजर-मूली खायें और खुश रहें. और बाल-उद्यान पर आकर मुस्कुराते रहें और फरमाइशें भी करें......यदि हो सका तो उन्हें पूरी करने की कोशिश की जायेगी.
शन्नो जी आपकी ककडी तो वास्तव में लाजवाब है । क्या तारीफ़ करें ?
शैलेश जी , बन्गलोर में ककडी मिल रही है लेकिन शन्नो जी की ककडी सी स्वादिष्ट् नहीं |
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