जब मराठी बोलने वाले लोकमान्य जी ने हिन्दी में बोला
हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है ..इसको व्यवहारिक दर्जा मिले ,इसके लिए राष्ट्रीय कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में यह मांग उठी सन १९२९ में ...इसी विषय पर लगातार चर्चा चलती रही ..इस सम्मेलन की अध्यक्षता लोकमान्य तिलक कर रहे थे ..उनको अपनी भाषा मराठी थी ....वह अंग्रेजी तो खूब अच्छे से बोल लेते थे पर हिन्दी उन्हें बहुत कम आती थी
महात्मा गांधी को अध्यक्ष की यह बात अच्छी नहीं लग रही थी .अध्यक्ष अंगेरजी में बोलंगे तो यह बात अच्छी नही होगी और इस से जो वह कार्यक्रम करना चाहते हैं उसकी मूल भावना को धक्का लगेगा ...उन्होंने कहा कि भले को अध्यक्ष हिन्दी नही बोल सकते पर उन्हें अंग्रेजी में भी नही बोलना है यह विदेशी भाषा है ..उनसे अनुरोध है कि चाहे तो मराठी में बोले ...कम से कम यह भारतीय भाषा तो है ....
गांधी जी के इस अनुरोध का सबने बहुत दिल से स्वागत किया
जब लोकमान्य तिलक बोलने के लिए खड़े हुए तो उन्होंने कहा ..".भाइयों और बहनों ! आज मैं पहली बार अपने भारत की राष्ट्रीय भाषा हिन्दी में बोलने की कोशिश कर रहा हूँ ....यदि मुझसे भाषा बोलने में कोई गलती हो जाए तो मुझे माफ़ कर दें!"
लोकमान्य के हिन्दी के यह वाक्य सुन कर सब हैरान रह गए ..महात्मा गान्धी ,सरोजनी नायडू .देश भर से आए नेता ..श्रोता सबने खूब ताली बजा कर स्वागत किया ...उनके हिन्दी भाषण का भी और उनके हिन्दी प्रेम का भी ...बहुत देर तक तालियाँ बजती रही ...इसके बाद पूरा भाषण हिन्दी में दिया लोकमान्य जी ने और सबने एक एक शब्द सुना ...हिन्दी हमारी भाषा है इससे प्रेम करना सीखो ....
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5 पाठकों का कहना है :
रंजना जी ऐसे प्रेरक प्रसंग के लिए ,बहुत ,बहुत ,बहुत,बहुत ,बहुत ,बहुत धन्यवाद और आभार |
अहिन्दी भाषियों ने जिस आत्मीयता और चिन्ता से हिन्दी का काम किया है, हिन्दीवालों ने उसके मुकाबले बहुत ही कम किया है । हिन्दी की उपेक्षा और हिन्दी पर अत्याचार आज भी हिन्दी वाले ही कर रहे हैं, अहिन्दी भाषी नहीं । हिन्दी के समाचार पत्र सारी कहानी आप कह देते हैं । ये लोग हिन्दी की रोटी खा रहे हैं और हिन्दी को गर्त में डाल रहे हैं ।
आपने बहुत ही सुन्दर प्रसंग प्रस्तुत किया । धन्यवाद ।
सुंदर प्रसंग और अच्छी प्रस्तुति।
रंजना जी,
बहुत ही सुंदर प्रसंग है. हिन्दी पर थोपे जाने का आरोप लगाने वाले यह भूल जाते हैं की हिन्दी को देश की राजभाषा बनाने का परचम उठाने वाले अग्रणी देशभक्तों में से अधिकाँश लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी की तरह अहिंदीभाषी थे! देश-हित में उन्होंने हिन्दी को अपनी-अपनी मातृभाषाओं से ऊपर रखा!
शायद,या बिल्कुल ही,ऐसे समय में बहुत जरुरत थी,ऐसे किसी प्रसंग पर कुछ भी लिखे कहे जाने की.
सही समय पर कही गई बहुत ही अच्छी बात.बहुत खूब जी,मैडम जी.
आलोक सिंह "साहिल"
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