हितोपदेश-५ स्वार्थी शेर
इक जंगल में था इक शेर
देखा उसने आम का पेड़
घनी थी आम वृक्ष की छाया
देख के शेर के मन में आया 
क्यों न वह यहाँ रह जाए
अपना अच्छा समय बिताए
पास में था चूहे का बिल
आया देख के बाहर निकल
देखा उसने सोया शेर
नहीं लगाई जरा भी देर
चढ़ गया उसकी पीठ पर
लगा कूदने शेर के ऊपर
खुल गई इससे शेर की जाग
लग गई उसके बदन मे आग
छुप गया चूहा अब बिल में
जला शेर दिल ही दिल में
उसने बिल्ली को बुलाया
और चूहे का किस्सा सुनाया
जैसे भी चूहे को मारो
तब तक मेरे यहाँ पधारो
खाना तुमको मैं ही दूँगा
हर पल तेरी रक्षा करूँगा 
बिल्ली ने मानी शेर की बात
रहती बिल के पास दिन-रात
अच्छे-अच्छे खाने खाती
और बाकी सबको सुनाती
मैं तो हूँ तुम सबसे सयानी
समझने लगी वो खुद को रानी
बैठा चूहा बिल के अन्दर
नहीं निकला कुछ दिन तक बाहर
भूख से वह हो गया बेहाल
पर बाहर था उसका काल
कितने दिन वो भूख को जरता
भूखा मरता क्या न करता
कुछ दिन बाद वो बाहर निकला
और बिल्ली को मिल गया मौका
चूहे को उसने मार गिराया
जाकर शेर को सब बतलाया
शेर का मसला हो गया हल
बदल गई आँखे उसी पल 
बोला! जाओ तुम अपनी राह
नहीं रखो कोई मुझसे चाह
अब न तुमको मिलेगा खाना
मेरे पास कभी न आना
अब बिल्ली ने जाना राज
मतलब से मिलता है ताज़
मतलब से सब पास मे आएँ
बिन मतलब न कोई बुलाए
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3 पाठकों का कहना है :
बहुत अच्छी कहानी है सीमा जी। यह तो दुनिया की रीत है। कभी भी लालच में आकर कोई काम नहीं करना चाहिए।
वाह ... सुन्दर हितोपदेश लिख रही हो आप..
काव्य कथा मन को रुची, 'सलिल' कर रहा वाह.
कोशिश करिए काव्य में, हो कुछ और प्रवाह.
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