हितोपदेश-6 मूर्ख बन्दर
मूर्ख को सलाह मत दो / मूर्ख बन्दर
एक बार इक नदी किनारे
रहते पक्षी प्यारे-प्यारे
हरे-भरे थे पेड़ वहाँ पर
बनाए वहाँ पर सुन्दर घर
पास थी इक छोटी सी पहाड़ी
रहते बन्दर वहाँ अनाड़ी
एक बार सर्दी की रात
होने लगी बहुत बरसात
आ गई बहुत नदी मे बाढ़
बन्दरो को न मिली कोई आड़
छुप गए पक्षी अपने घर
नही था उन्हे वर्षा का डर
ठण्डी मे बन्दर कँपकँपाते
कभी इधर कभी उधर को जाते
देख के उनको पक्षी बोले
छोटे से प्यारे मुँह खोले
नही है पास हमारे कर
फिर भी हमने बनाए घर
तुम्हारे पास है दो-दो हाथ
फिर भी तुम न समझे बात
जो तुम अपना घर बनाते
तो ऐसे न कँपकँपाते
आया अब बन्दरो को क्रोध
भर गया मन मे प्रतिशोध
चढ़ कर सारे वृक्षो पर
तोड़ दिए पक्षियो के घर
अब पक्षियो को समझ मे आया
व्यर्थ मे मूर्खो को समझाया
जो न हम उनको समझाते
तो न अपने घर तुड़वाते
मूर्ख मूर्खता न छोड़े
मौका पा वो घर को फोड़े
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3 पाठकों का कहना है :
बडी सुहानी पढी कहानी
बात सभी ने अब ये जानी
सही सीख भी सीख ना मानी
बात नही सुनता अज्ञानी
प्रतिशोधी और मूर्ख बन्दर
तोड दिये पक्षियों के घर
धन्यवाद सीमा जी...
सीमा जी,
बहुत ही अच्छी कविता लगी, आप कहानियो को कविताओ मे बहुत अच्छी तरह बदलते हो
पढकर अच्छा लगा
सुमित भारद्वाज
कोशिश अच्छी है मगर. करिए और प्रयास.
रस जितना भी अधिक हो, कविता होती खास.
बच्चे सस्वर गा सकें, याद कर सकें साथ.
कम श्रम हो, शिक्षक 'सलिल', चले उठाकर माथ.
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