तब और अब .....
आज बात सुनाते हैं आपको तब की जब प्रधानमंत्री के पद पर लाल बहादुर शास्त्री थे। एक दिन उनके बेटे सुनील शास्त्री ने अपने मित्रों के साथ घूमने का कार्यक्रम बनाया और किसी को बताया नहीं। जैसे ही बाबू जी कार्यालय से अपने निवास पर लौटे, सुनील ने ड्राइवर से गाड़ी ले कर चलने को कहा। वह सुनील को इनकार न कर सका।
रात को जब सुनील लौटे तो उनके पिता भी अभी जागे हुए थे। आते ही पूछा कि कहाँ गए थे? शायद पिक्चर है न?
नहीं बाबू जी ! मैं मित्रों के साथ ड्राइव पर निकल गया था। आपको बता न सका इस के लिए मुझे माफ़ कर दें|"
सुनो बेटा, आज जो गलती तुमने की है मैं इसको माफ़ करता हूँ पर यदि आगे कहीं भी जाना हो तो अपनी फिएट गाड़ी ले कर जाना सरकारी गाड़ी का इस तरह से इस्तेमाल करना ग़लत बात है।
रात बीती सुबह ड्राइवर आया उन्होंने उस से पूछा कि जरा माईलोमीटर चेक कर के बताओ की रात को सुनील ने कितने मील गाड़ी चलायी है?"
उसने देख कर बताया --जी, चौंतीस मील।
शास्त्री जी ने अंदाज से कुछ रकम ड्राइवर के हाथ में रखी और कहा कि यह रकम ट्रांसपोर्ट विभाग में प्राइवेट गाड़ी इस्तेमाल की है कह कर जमा करवा देना।
शास्त्री जी के इस स्वभाव को ड्राइवर अच्छे से जानता था इसलिए बिना कुछ कहे उसने वह पैसे जमा करवा दिए और शाम तक रसीद और बाकी बस पैसे उन्हें वापस कर दिए।
इस तरह की घटनाएँ याद कराती है कि कैसे अच्छे दिल के नेता थे उस वक़्त और आज ......
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4 पाठकों का कहना है :
कितने अच्छे थे तब के नेता। और आज के नेताओं को देखो। आप बहुत अच्छे संस्मरण लिख रही हैं।
मैने अपनी किसी पोस्ट में निम्नलिखित घटना का जिक्र किया था बच्चों के लिये दोबारा लिख रहा हूं।
शास्त्रीजी के बड़े बेटे हरिकृष्णजी को एक बहुत बड़ी कम्पनी से आफर आया तो उन्होंने अपने पिताजी से पूछा। शास्त्रीजी ने जवाब दिया कि यह आफर तुम्हें मेरे प्रधान मंत्री होने के कारण मिला है, यदि तुम अपने आप को इस पोस्ट के लायक समझते हो तो जरूर जाओ।
हरिकृष्णजी ने भी तुरंत अपनी असमर्थता का पत्र कम्पनी को भेज दिया। आज कहां वैसे आदर्श वादी नेता। हां शायद वैसे आज्ञाकारी बेटे जरूर मिल जायें।
सीख देने वाला प्रसंग। रंजना जी आपका धन्यवाद। दीदी की पाती यह रूप भी पसंद आ रहा है।
जैसे कोई एक पृष्ठ पढ़े और पूरा उपन्यास पढ़ कर ही दम ले वैसे ही बाल उद्यान ने मन मोह लिया। मै बहुत दिनो बाद यहाँ आया तो लगा इसे अवश्य पढ़ना चाहिए। यह प्रंसग तो सभी को पढ़ना चाहिए।
-देवेन्द्र पाण्डेय।
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