Saturday, October 31, 2009

हथेली पर बाल

एक बार अकबर भरे दरबार में बैठे थे। अकबर के मन में अचानक एक विचार आया और उन्होंने दरबारियों से एक सवाल पूछा -"क्या आप बता सकते हैं कि मेरी हथेली पर बाल क्यूँ नही हैं?"

"जहाँपनाह! हथेली पर बाल होते ही नहीं हैं" सभी दरबारियों ने एक स्वर में कहा और गर्व से फूल गए कि उन्होंने बादशाह को आज इस सवाल का तरंत उत्तर दे दिया।

मगर अकबर बादशाह को आज इस सीधे-सादे उत्तर से क्या संतोष होना था, उन्होंने फिर पूछा -"क्यूँ नहीं होते?"

सब दरबारी चुप। क्या जवाब दें। जब हथेली पर बाल नहीं होते, तो नहीं होते। ये तो कुदरती बात है।

उन्हें चुप देखकर बादशाह ने बीरबल की तरफ़, "बीरबल तुम्हारा क्या खयाल है?"

बीरबल ने कहा,"जहाँपनाह! आप रोज-रोज अनेक गरीबों को दान देते हैं। जिससे आपकी हथेली लगातार घिसती रहती है। इसलिए इस पर बाल नहीं उग पाते।"

बीरबल का जवाब सुनकर बादशाह खुश हो गए।

मगर तुंरत ही ही उन्होंने पूछा, "माना कि दान देते रहने से हमारी हथेली में बाल नहीं उग पाते लेकिन तुम्हारी हथेली में बाल क्यों नहीं हैं?"

"जहाँपनाह! आप रोज-रोज मुझे ढेरों उपहार देते रहते हैं। उन उपहारों को लेते-लेते मेरी हथेली भी तो घिसती है!इसलिए मेरे हथेली में भी बाल नहीं उगे।"

अकबर ने सोचा, "बीरबल तो बहुत चतुर निकला, लेकिन आज वह बीरबल की पूरी परीक्षा लेना चाहते थे।

इसलिए फिर पूछा, "तुम्हारी और मेरी हथेलियाँ तो घिसती रहती हैं, लेकिन हमारे अन्य दरबारियों की हथेलियों में भी बाल नहीं उगे, इसका क्या कारण है?"

बीरबल ने हँसते हुए कहा, "यह तो बिल्कुल सरल बात है, आलमपनाह! आप मुझे प्रतिदिन उपहार देते हैं, इससे दरबारियों को भारी जलन होती है और ये हमेशा हाथ मलते रहते हैं। यदि हथेलियाँ लगातार घिसती रहें तो उन पर बाल कैसे उगेंगे?"

यह सुनकर अकबर खिलखिलाकर हँस पड़े। बीरबल से जलने वाले दरबारी और अधिक जल उठे ।

संकलन- नीलम मिश्रा


Friday, October 30, 2009

माता पिता में सकल जहान

नमस्कार बच्चो ,
आप सब अपने माता-पिता से बहुत प्यार करते हैं न ।
माता-पिता से बढकर दुनिया में कुछ नहीं होता । उन्हीं के चरणों में सम्पूर्ण विश्व समाया है , माता-पिता के आगे स्म्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी तुच्छ है । श्री गणेश जी नें भी हमें यही संदेश दिया है । आओ मैं आपको उनकी एक काव्य-कथा सुनाती हूं , जिसमें उन्होंने माता-पिता को सम्पूर्ण संसार बता कर अपने बलशाली भाई कार्तिकेय को भी पराजित कर दिया था ।


पार्वती नन्दन गणेश
पूजा है जिनकी अति विशेष
सर्व-प्रथम जिनका वन्दन
वो गणपति बप्पा जगनन्दन
है जन-जन पर जिसकी दष्टि
उसे माता पिता ही सकल सष्टि
सुन लो एक बार की बात
खेल रहे भाई के साथ
दोनों खेल-खेल के बहाने
लगे जोर अपना आजमाने
कार्तिकेय बोले हे गणेश
ताकत है मुझमें विशेष
तुम तो बस खाते ही रहते
या आसन पर बैठे रहते
न तुम कभी करो व्यायाम
हर पल बस पढने का काम
बिन ताकत के थोथा ग्यान
लो ताकत से जीत जहान
देखो मैं कितना बलशाली
कर सकता जग की रखवाली
खडे दूरी पर नारदमुनि
कार्तिकेय की बात सुनी
सुनकर उनके पास में आए
बोले अपना शीश झुकाए
प्रतियोगिता से होगा निर्णय
देखो मिलेगी किसे विजय
दोनों भाई हुए तैयार
नापेंगे सकल संसार
विश्व घूम पहले जो आए
वही तो बलशाली कहलाए
कार्तिकेय खुश मन ही मन
जीत नहीं सकता गजानन
प्रथम तो बस मैं ही आऊंगा
बलशाली मैं कहलाऊंगा
घूमने निकल पडे संसार
गणपति गए बस घर के द्वार
एक विचार यूं मन में जन्मा
शिव-गौरी की ली परिक्रमा
बैठ गए आ मां की गोद
लगे वो करने हास-विनोद
बोले नारद हे गजानन
लांघा नहीं घर का आंगन
मिलेगी कैसे तुम्हें विजय
जीतेगा बस कार्तिकेय
चेहरे पर लाकर मुस्कान
बोले कार्तिकेय नादान
माता-पिता में विश्व समाया
न जाने वो क्यों भरमाया
कर लिया पूरा मैने काम
मां की गोदि में करूं आराम
जब उनसे यह बात सुनी
गिरे चरणों में नारद मुनि
बात समझ में उनके आई
माता-पिता में सष्टि समाई
घूम के जब कार्तिकेय आया
नारद जी ने यह समझाया
माता-पिता से करे जो प्यार
पूजता है उनको संसार
माता-पिता ही जग में महान
खुल गए कार्तिकेय के कान
खेल खेल में दिया संदेश
माता पिता ब्रह्म विष्णु महेश
माता पिता का करे जो वंदन
कट जाते उसके सब बंधन


तितली



रंग बिरंगी तितली
उड़ती फिरती तितली
इस फूल से उस फूल
संग हवा के झूमती.

कितना निर्मल जीवन
कितना पावन जीवन
खुशियों की ले सौगात
महका बहका जीवन.

जीवन हर्षित करती
स्वर्ग बने यह धरती
बाग में जैसे तितली
उन्मुक्त हवा में उड़ती.

विकार रहें सब दूर
चित्त निर्मल भरपूर
दुख गम से अनजान
चेहरे पर छाये नूर.

कुलवंत सिंह


Thursday, October 29, 2009

मैं ककड़ी पर नहीं कड़ी



नाजुक बदन रंग है धानी
मैं बनती सलाद की रानी
दुबली-पतली और लचीली
कभी-कभी पड़ जाती पीली
सबकी हूँ जानी-पहचानी
मुझमे होता बहुत ही पानी
गर्मी में होती है भरमार
हर सलाद में मेरा शुमार
करते सब हैं तारीफें मेरी
खीरे की मैं बहन चचेरी
हर कोई लगता मेरा दीवाना
हो गरीब या धनी घराना
खाने में करो न सोच-बिचार
हल्का-फुल्का सा हूँ आहार
विटामिन ए, सी और पोटैसियम
सब रहते हैं मुझमें हरदम
मौसम के हूँ मैं अनुकूल
आँखें हो जातीं मुझसे कूल
अंग्रेजी में कहें कुकम्बर
खाते हैं सब बिन आडम्बर
ब्यूटीपार्लर जो लोग हैं जाते
पलकों पर हैं मुझे बिठाते
मुखड़े करती मलकर सुंदर
दूर करुँ विकार जो अन्दर
स्ट्राबेरी संग प्याज़, पोदीना
मुझमें मिलकर लगे सलोना
बटर, चीज़ संग टमाटर
मुझे भी रखो सैंडविच के अंदर
कभी अकेले खाई जाती
कभी प्याज-गाज़र संग भाती
अगर रायता मुझे बनाओ
उंगली चाट-चाट कर खाओ
यदि करते हो मुझको कद्दूकस
तो नहीं फेंकना मेरा रस
गोल-गोल या लम्बा काटो
खुद खाओ या फिर बांटो
सिरके में भी मुझको डालो
देर करो ना झट से खा लो
और भी सोचो अकल लगाकर
सब्जी भी खाओ मुझे बनाकर.

--शन्नो अग्रवाल


Wednesday, October 28, 2009

फिर से सर्दी आई रे



फिर से सर्दी आई रे,
धीरे-धीरे आई रे।

सुबह-सुबह उठना न भाये,
ठंडे पानी से कौन नहाये,
सोच कंपकपी आई रे।
फिर से सर्दी आई रे।

होमवर्क करने न पाऊँ,
हाथ कहें, क्यों साथ निभाऊँ,
हमें रजाई भाई रे।
फिर से सर्दी आई रे।

मम्मी की है गोद न्यारी,
गर्मी दे है प्यारी-प्यारी,
नींद सुहानी आई रे।
फिर से सर्दी आई रे।

गर्म-गर्म पिलाओ चाय,
रोटी भी हम सब गर्म ही खायें,
हलवे की बारी आई रे।
फिर से सर्दी आई रे।

काजू-किशमिश खूब चबायें,
मूँगफली के मजे उडायें,
सबने मौज मनाई रे।
फिर से सर्दी आई रे।

--डॉ॰ अनिल चड्डा


Tuesday, October 27, 2009

27 अक्टूबर 2009- क्या आप जानते हैं?


लिखने से आँखें जल्दी नहीं थकती, पढ़ने से थक जाती हैं क्यों???????????????????


लिख भेजिए अपने रोचक जवाब, सबसे सही और रोचक प्रस्तुति को हमारे बाल-उद्यान की मॉनिटर शन्नो जी की शाबाशी मिलेगी एक अनूठे अंदाज में, जल्दी कीजिये समय सीमा सिर्फ आज और आज ही।

आपके जवाबों की प्रतीक्षा में-

बाल उद्यान परिवार के साथ
(नीलम व शन्नो)


Monday, October 26, 2009

मेरा नाम चुकंदर बाबू



मुझे देख कर ना डर जाना
दिखने में नहीं इतना सुन्दर
पर मेरा नाम नहीं अनजाना
सब कहते हैं मुझे चुकंदर।

कुछ तो देख इतना डर जाते
कहने लगते ' बाप-रे-बाप '
लगता तब कुछ ऐसा मुझको
उनको सूंघ गया हो सांप।

शलजम, गाजर, मूली, आलू
यह सब लगते मेरे रिश्तेदार
एक सी मिटटी के अन्दर रह
हम सबकी होती है पैदावार।

अगर कभी कोई मुझे खरीदे
घर में सब बच्चे देखें घूर-घूर
जैसे ही मेरा रस आता बाहर
खड़े हो जाते वह मुझसे दूर।

लाल-बैंगनी सा रंग बदन का
नहीं टपकता है मुझसे नूर
पर कभी न कोई मुझपर हँसना
गुणों से हूँ मैं बहुत भरपूर.।

कैल्शियम, आयरन, फाइबर
और भरे हैं विटामिन-मिनेरल
अब नहीं मुझे देख घबराना
कार्बोहाइड्रेट भी है मेरे अन्दर।

अगली बार मार्केट जाओ तो
मम्मी के संग तुम भी जाना
मुझे ढूंढ-खरीद कर घर लाओ
फिर मम्मी से कुछ बनवाना।

घबराने की कोई बात नहीं है
छूकर देखो, मुझे हाथ लगाओ
मुझे उबालो, छीलो-काटो और
तरह-तरह से फिर आजमाओ।

कई प्रकार के तरीकों से तुम
खाने को कुछ रंगत दे डालो
अगली बार को सलाद बनाओ
गाजर-मूली संग घिस डालो।

मोटी खाल को छीलो पहले
लम्बी-पतली फांकें फिर काट
उबला आलू और दही मिलाकर
चाट-मसाला संग बनती चाट।

बैंगन, गोभी, प्याज़ के टुकड़े
धनिया, मिर्च नमक और बेसन
पानी संग मिला कर मुझको
तलना गरम पकौड़े छन-छन।

मिक्सी में बने जूस चीनी संग
फिर जब भी जाओ तुम स्कूल
थर्मस में भर इसको ले जाना
साथ में पीने को कुछ कूल-कूल।

गाजर, प्याज़, मशरूम डालकर
चावल संग सकते हो मुझे पका
सबके संग मिल जुल कर खाओ
तो खाने में बढ़ जाये जायका।

हर मौसम में यदि खाना हो तो
बोतल के सिरके में मुझको रखो
जब अचानक मूड बने खाने का
जल्दी निकाल कर मुझको चखो।

अब ना मुझे ऐसे घूर-घूर कर देखो
अपने मन पर सब रखना काबू
मेरी बातों पर सदैव ध्यान देना
मैं हूँ अब सबका दोस्त चुकंदर बाबू।


--शन्नो अग्रवाल


Sunday, October 25, 2009

दो एकम् दो, दो दुनी चार, जल्दी से आ जाता फिर से सोमवार

सुनिए नीलम मिश्रा की आवाज में अनिल चड्डा की सीख इन पहाडों के माध्यम से और दीजिये अपनी बहुमूल्य
पर सच्ची टिप्पणी कि आपको यह छोटा सा प्रयास कैसा लगा?

दो का पहाड़ा


तीन का पहाड़ा


चार का पहाड़ा


Saturday, October 24, 2009

चाणक्य- निंदक नियरे राखिये

उस समय की बात है, जब चाणक्य और चन्द्रगुप्त मिलकर भारतवर्ष में मौर्य साम्राज्य की स्थापना कर रहे थे। सारा देश छोटे-छोटे राज्यों में बँटा था। बिखरी हुई शक्तियों को समेटकर एक राष्ट्र का निर्माण करना सहज काम नहीं था। चाणक्य और चन्द्रगुप्त एक सेना इकट्ठी करके देश के भीतरी राज्यों को जीतने में लगे थे। उनके सामने सबसे बड़ी यह समस्या थी की ज्यों ही वे एक राज्य या प्रांत को जीतकर दूसरे पर आक्रमण करते, त्योंही शत्रु लोग जीते हुए देश पर पुनः अधिकार कर लेते थे। इस प्रकार उनका किया कराया चौपट हो जाता था।

चाणक्य और चन्द्रगुप्त बड़ी विकट परिस्थिति में थे। उनके चारों ओर शत्रुओं का दल प्रबल होता जा रहा था। वे उनको दबाने में असमर्थ थे। धीरे-धीरे उनके साधन समाप्त हो गए और वे मारे-मारे फिरने लगे।

एक दिन चाणक्य और चन्द्रगुप्त वेष बदलकर घूम रहे थे। घूमते-घूमते एक गाँव में उन्होंने यह दृश्य देखा- एक छोटा बालक अपने घर के सामने हाथ में रोटी लिए बैठा था। वह उस रोटी को बीच से नोचता था, इसीलिए इसके किनारे झूलकर गिर पड़ते थे। इसीपर उसकी माँ उसे डाँटती हुई बोली- अरे छोकरे! तू भी चाणक्य जैसा ही मूर्ख जान पड़ता है, रोटी को किनारे से तोड़कर खा।

स्त्री के मुख से अपनी निंदा सुनकर चाणक्य चौंक पड़े। उसने तुंरत पास खड़े होकर पूछा- श्रीमती जी, चाणक्य को तो लोग बड़ा चतुर बताते हैं; आपने किस बात से उसको मूर्ख मान लिया है?

स्त्री ने हँसकर कहा- भले आदमी, इतना भी नही जानते! उस मूर्ख ने देश के बाहरी प्रान्तों को छोड़कर पहले भीतरी भाग को जीतने का प्रयत्न किया। फल यह हुआ कि यह वह शत्रुओं से घिर गया और उसके हाथ कुछ भी नहीं लगा। घर के भीतर का धन चोरों से तभी बचता है, जब बाहर की किवाडें मजबूत और बंद हों।

अक्लमंद को एक इशारा ही काफी होता है। इस खरी आलोचना से चाणक्य को अपनी भूल का पता चल गया। उन्होंने चन्द्रगुप्त को लेकर दुबारा एक नई सेना संगठित की। उसकी सहायता से उन्होंने पहले उन राज्यों को जीतना आरम्भ किया जो देश की चारों सीमाओं पर थे। सीमा प्रान्तों को मुट्ठी में करके उन्होंने भीतरी राज्यों को बाहर से घेर लिया। उनके विरोधियों को न तो बाहर से सहायता मिलने की कोई आसा रही और न जान बचाकर भागने की। वे लोग तो एक प्रकार से बंदीगृह में पड़ गए। चाणक्य और चंद्रगुप्त ने उन्हें सहज ही जीत लिया।

चाणक्य ने जो अपनी निंदा सुनी थी, वह कटु होकर भी उनके बड़े काम की साबित हुई। इसीलिए कबीर ने कहा है -

निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय।
बिनु साबुन पानी बिनु, निर्मल करे सुभाय।।


Thursday, October 22, 2009

पाँच एकम पाँच



पाँच एकम पाँच,
पाँच दूनी दस,
अपनी बातों में सदा,
घोल के रखना रस।

पाँच तीए पंद्रह,
पाँच चौके बीस,
रखना अच्छी आदतें ,
लेना अच्छी सीख।

पाँच पंजे पच्चीस,
पाँच छेके तीस,
लालच तुम करना नहीं,
रखो दूर बुरी चीज।

पाँच सत्ते पैंतीस,
पाँच अट्ठे चालीस,
राहों में बोना नहीं,
काँटों के तुम बीज।

पाँच नामें पैंतालीस,
पाँच दस्से पचास,
करना काम लगन से
खोना मत विश्वास।

--डॉ॰ अनिल चड्डा

दो एकम दोतीन एकम तीनचार एकम चार


Wednesday, October 21, 2009

कुछ इधर-उधर की बातें



आओ बच्चों करें आज कुछ इधर-उधर की बातें
घर में क्या हो रहा है और कुछ मौसम की भी बातें।

दादा जी के खर्राटों की आवाजें सुन बिल्ली आ जाती
दरवाजे के बाहर बैठी म्याऊँ-म्याऊँ कर शोर मचाती।

होमवर्क करने को तो गुड्डू अक्सर जाता है टाल
पर नहीं ऊबता देखकर दिनभर टीवी पर फुटबाल।

अचानक बारिश रुक जाती बादलों के चले जाने पर
घास पर अटकी झिलमिल करती बूँदें जाती हैं झर।

पतझर आने पर जब पेड़ों से सारे पत्ते जाते हैं झर
ले जाती है तब गिलहरी गिरे सेवों को कुतर-कुतर।

पतझर आने पर सबसे पहले तो आती है दीवाली
लक्ष्मी पूजन की सजाते हम-सब मिलकर थाली।

फिर कुछ दिन बाद मनायेंगे मिलकर सब क्रिसमस
ढेरों से उपहार मिलेंगे और गले मिलेंगे सब हँस-हँस।

आओ सबसे पहले दीवाली का पूजन कर दिये जलायें
झिलमिल-झिलमिल करे रोशनी सब बच्चे नाचें-गायें।

जी भर के आज उड़ाओ मस्ती खाओ खूब सभी पकवान
लेकिन जब भी फोड़ो पटाखे रहना तुम बहुत ही सावधान।

तुम सबका भविष्य हो उज्जवल जगमग हो दीप जैसा
अपने घर के तुम सभी दीप हो भारत चमके तारों जैसा।

--शन्नो अग्रवाल


Tuesday, October 20, 2009

आलू-गोभी का वार्तालाप



आलू बोला गोभी से,
मुझसे तू न टकराना,
मैं हूँ सब्जियों का राजा,
मेरे रस्ते से हट जाना।

बोली गोभी आलू से,
मैं हूँ सब्जियों की रानी,
ग़र आयेगा मेरे रस्ते,
याद तुझे आयेगी नानी।

आलू बोला चल बड़बोली,
मुझसे बनें बहुत पकवान,
तुझसे बस सब्जी या पराठे,
मुझ बिन नहीं तेरी पहचान।

गोभी बोली मेरे पराठे,
स्वाद भरे हों सबसे करारे,
तेरे पराठे ढीले-ढाले,
बड़े यत्न से मुँह में डालें।

आलू बोला सुन ऐ गोभी,
मुझको चाहे किचन की रानी,
हर पल मुझको साथ में रखते,
मम्मी, बेटी या हो नानी।

उबले आलू, सूखे आलू,
आलू-टमाटर, मटर संग आलू,
दम आलू या मेथी-आलू,
व्रत में भी तुम खालो आलू।

गर्मी में आलू, सर्दी में आलू,
हर कोई चाहे आलू पा लूँ,
हर सब्जी संग स्वाद नया है,
हर सब्जी संग चले है आलू।

गोभी बोली जो तुझे खाये,
पीछे खाने के पछताए,
इसमें इतना स्टार्च भरा है,
झटपट सबकी शुगर बढ़ाये।

गोभी से बोला फिर आलू,
पोल तेरी कुछ मैं भी खोलूँ,
जो तुझको ज्यादा खा जाये,
रोये, दर्द मैं कैसे झेलूँ ।

गोभी-आलू की ये लड़ाई,
खत्म नहीं होने को आई,
चाकू मम्मी जी ने उठाया,
काट के दोनों सब्जी बनाई।

आलू गोभी की सब्जी ने,
हमको था ये सबक सिखाया,
आपस में लड़ने से बच्चो,
दूजे ने था फायदा उठाया।


--डॉ॰ अनिल चड्डा


Thursday, October 15, 2009

अब्दुल कलाम: रामेश्वरम से राष्ट्रपति भवन तक

अब्दुल कलाम के बारे में जितना मैंने पढ़ा है उससे यही अंदाज़ लगाया है कि ख्वाब उनकी सबसे पसंदीदा चीज़ हैं। ख्वाब के बारे में उनका खुद का कहना है कि ख्वाब वह नहीं होते जो हम सोते में देखते हैं बल्कि ख्वाब वह होते हैं जो हमें सोने ही न दें। और ऐसा उन्होंने न सिर्फ कहा बल्कि इसे करके भी दिखाया जब वो SLV-3 के परीक्षण के दौरान एक महीने तक रात में सिर्फ तीन घंटे ही सोया करते थे।

अनोखी विलक्षण प्रतिभा से भरे हुए किसी भारत रत्न के बारे में लिखना कोई आसान काम नहीं है खासतौर से मेरे लिए इसी लिए मुझे राल्फ वाल्डो एमर्सन की कविता का सहारा लेना पड़ा। ऐसा लगता है जैसे यह कविता उन जैसे लोगों के लिए नहीं बल्कि उन्हीं के लिए लिखी गई है।

Brave man who works while others sleep
who dare while others fly
they build a nations pillar deep
and life them to sky
क्या हैं कलाम?

इस सवाल के कई जवाब हैं अलग अलग लोगों की नज़र में

मिस्टर टेक्नोलॉजी ऑफ़ इंडिया
डॉ. आर. ऐ.माशेलकर के शब्दों में
सचिव औद्योगिक संस्थान विभाग

चौबीस कैरेट स्वर्ण
वाई एस राजन के शब्दों में

महान संत वैज्ञानिक
एस.एस पंवार के शब्दों में

मिसाइल मैन
सारे भारत के शब्दों में

और सबसे बेहतर जवाब
मान लीजिए कोई कहता है कि दो और दो पॉँच होते हैं तो हम इसकी खिल्ली उड़ा सकते हैं लेकिन यह महान विचारक कहेगा कि चलो इसका विश्लेषण करके देखते हैं।
सुब्रमण्यम
सदस्य केन्द्रिय योजना आयोग।

अब्दुल कलाम का जन्म तमिलनाडू के रामेश्वरम कस्बे में 15 अक्तूबर 1931 को हुआ। उनका परिवार नाव बनाने का काम करता था। उनके परिवार से दो उनके पक्के दोस्त थे एक उनके चचेरे भाई शमसुद्दीन और दूसरे उनके बहनोई जलालुद्दीन। जलालुद्दीन ने ही उन्हें ईश्वर में दृढ़ विश्वासी बनाया था। जलालुद्दीन के बारे में उनका कहना था "वह ईश्वर के बारे में ऐसी बातें करते थे जैसे ईश्वर के साथ उनकी कामकाजी भागीदारी हो।"

कुछ दिनों उन्होंने अख़बार बाँटने का काम भी किया। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जब ट्रेन ने रामेश्वरम रेलवे स्टेशन पर रुकना बंद कर दिया और चलती ट्रेन से ही अख़बार के बण्डल फेंक दिए जाते थे तो उनके बड़े भाई को ज़रुरत थी एक ऐसे इन्सान की जो उनकी मदद कर सके। इस तरह से कमाल ने कुछ वक़्त अख़बार भी बांटे।

अपने छात्र जीवन के बारे में उनका कहना था कि परीक्षाओं में डिविजन लाने की द्रष्टि से तो मैं कोई होशियार छात्र न था लेकिन मेरे रामेश्वरम के दो उस्तादों जलालुद्दीन और शमसुद्दीन के दिए व्यवहारिक ज्ञान ने मुझे कभी नीचा नहीं दिखने दिया।

"सन 1950 में इंटर करने के बाद B.Sc. की लेकिन फिर लगा कि मेरा सपना तो इंजीनियरिंग है" जिसके बाद उन्हें MIT(madras institute of engineering) में दाखिला लेने के लिए बहुत चक्कर लगाने पड़े क्योंकि उसकी फीस उस वक़्त 1000 रूपये थी जिसके लिए उनकी बहन ने अपने गहने गिरवीं डालें और उन्होंने उन गहनों को अपनी स्कोलरशिप से छुड़वाने की बात अपने मन में ठानी।

कोर्स पूरा हो जाने के बाद उन्हें रक्षा मंत्रालय और भारतीये वायु सेना दोनों से बुलावा आया और उन्होंने वायुसेना को चुना लेकिन इंटरव्यू में केवल आठ ही लोग लिए जाने थे और उनका नंबर नवां था। इसके बाद लौटकर आकर उन्होंने DRDO में 250 रूपये के मासिक वेतन पर नौकरी कर ली। उन्हें लगता था "अगर मैं जहाज़ नहीं उड़ा रहा हूँ तो काम से काम उन्हें उड़ने लायक तो बना ही रहा हूँ।"

उनका सबसे पहला आविष्कार हावरक्राफ्ट नंदी रहा लेकिन वह सेना में शामिल नही हो पाया क्योंकि यह परियोजना विवादों में फँस गई।
हावरक्राफ्ट के सेना में शामिल न हो पाने के दूसरा धक्का उन्हें तब लगा जब उनके दूसरे अविष्कार "दायामान्ट वील" जो की फ्रांस के सहयोग से चलाया जा रहा था में फ्रांस ने सहयोग करना बंद कर दिया। इसके बाद उन्होंने और उनके सहयोगियों ने अकेले ही इसपे काम किया और यही वह समय था जब परीक्षण से पहले वह केवल 3 घंटे ही सो पाते थे।

SLV-3 परियोजना उनके जीवन की सबसे दुखद परियोजना रही। इसी दरमयान उनके बहनोई जलालुद्दीन का निधन हो गया और इसके बाद उनके पिता का और फिर माता का. इतनी मौतों पर उनका कहना था "तुम क्यों शोक मना रहे हो उस काम पर ध्यान केन्द्रित करो जो तुम्हारे लिए पड़ा है. यह शब्द मुझसे किसी ने कहे नहीं फिर भी मैंने इन्हें सुना जोर जोर से स्पष्ट आवाज़ में और मैं बहुत ही शांति के मस्जिद से बाहर निकला और बिना अपने घर की तरफ देखे स्टेशन की ओर चल पड़ा।"

SLV-3 का पहला प्रयोग सफल नहीं हो पाया और यान कुछ देर उड़ने के बाद समुद्र में गिर गया। इसकी कमियों को दूर करने के लिए वह फिर प्रयासरत हो गए और उन्होंने ऐसा कर दिखाया जब SLV-3 ने अपनी पहली उडान भरी।
उनकी सादगी की मिसाल मिलती है जब SLV-3 की कामयाबी के बाद उन्हें प्रधानमंत्री से मिलने जाना था। वह रोज़ की तरह हवाई चप्पलों और सादे कपडों में थे। उन्होंने अपनी यह समस्या जब प्रो. धवन को बताई तो उन्होंने हँसकर कहा अरे तुम तो अपनी सफलता से सजे हो। 1981 में उन्हें पद्मभूषण से नवाजा गया।

अग्नि के परीक्षण के दौरान एक बार एक युवा उनसे पूछता है हम कामयाब कैसे होंगे हमारे मिशन में कोई बड़ी हस्ती तो है नहीं? तब वह जवाब देते हैं "एक बड़ी हस्ती वह छोटा व्यक्ति है जो लगातार अपने लक्ष्य पे निगाह जमाये हुए है।"

एक बार एक वैज्ञानिक अपने बॉस के कमरे में जाता है और कहता है मुझे शाम को 5:30 बजे घर जाना है। आज बच्चो को घुमाने ले जाना है। बॉस ने इजाज़त दे दी लेकिन वह शाम को 5:30 बजे अपने घर जाना भूल गया और देर रत तक काम करता रहा। बाद में उसे याद आने पर जब वह अपने घर पहुंचा तो उसे लगता था कि सब नाराज़ होंगे लेकिन ऐसा कुछ भी न था उसकी पत्नी ने खाने को कहा. उसने दबी जुबान में बच्चों के बारे में पूछा तो पता चला कि शाम को 5:15 बजे कोई व्यक्ति आया था और बच्चों को घुमाने ले गया है। यह व्यक्ति कोई और नहीं अब्दुल कलाम ही थे। उनका कहना था कि यह हर बार नहीं किया जा सकता लेकिन एक बार तो किया ही जा सकता है।

उनके बाकी प्रयोगों की तरह अग्नि की कहानी भी बहुत दुखद रही.अग्नि ने भी कई बार परीक्षण करके बाद ही अपनी उडान भरी। असफलता पर उन्हें कभी कभी अख़बारों के कार्टून का सामना करना पड़ता तो कभी दूसरी बातों का। अग्नि की उड़ान के बाद दूसरे देशों में आरोप लगाने शुरू कर दिए। अमेरिका ने कहा कि भारत ने अग्नि जर्मनी की सहायता से बने हा जर्मनी ने इसे फ्रांस की तरफ मोड़ दिया। लेकिन आखिर में अग्नि कलाम की ही मानी गई।
इसके बाद 1990 में अब्दुल कलाम को पद्मविभूषण और 1997 में भारत रत्न से नवाजा गया। इसी के साथ जादवपुर यूनिवर्सिटी ने उन्हें डॉ. ऑफ़ साइंस की मानद उपाधि दी। 2002 में उन्हें भारत का राष्ट्रपति चुना गया।

हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी को रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में एक दीदावर पैदा।

प्रस्तुति- शामिख फ़राज़


आज है धनतेरस



पापा आज है धनतेरस
ऐसे बैठे हो क्यों नीरस
पता नहीं है क्या तुमको
बाजार जाना है हमको

दादी ने है मुझे बताया
क्यों धनतेरस मनाते हैं
आज के दिन बाजार से
हम नई-नई चीजें लाते हैं

कोइ लाता सोना-चाँदी
कोइ रसोई के बर्तन
फ्रिज-टीवी भी लाते हैं
और लाते रोली-चंदन

बोलो पापा क्या लायेंगे
कुछ सोचा है तुमने
मैने सोचा है लायेंगे
पहले दादी के चश्मे

कई दिनों से देखा मैने
असमंजस में रहती है
ठोकर खाती गिरती-पढती
इधर-उधर फिरती है

कोइ बात नहीं तुम मुझको
कुछ भी मत दिलवाना
अब छोडो़ अपनी दुविधा
पहले दादी के चश्मे लाना

दीवाली पर जब आ जायेगी
उसकी आँखों की उजियाली
तभी मनाऊँगा मैं पापा
खुश होकर यह दीवाली

-----दीपाली पंत तिवारी


तुम्हीं बताओ नानी का वो चान्द कहां से लाऊं ?

माँ रात भर जाग-जाग कर
यों कहती थी नानी
आओ बच्चो मिलजुल कर
चन्दा की सुनो कहानी
बूढ़ी माई एक चांद पर
रही है चरखा कात
घटते और बढ़ते रहना है
यही चाँद की जात
पूनम के दिन पूरा होता
फिर घटता ही जाता
घट कर फिर बढ़ना उसका
कभी समझ न मुझको आता
कभी बोलती इक दानव ने
बना लिया है निवाला
तभी चमकता चाँद भी देखो
हो गया काला काला
कहती चाँद पनीर का टुकड़ा
दागी उसका शाप से मुखड़ा
आए जब कोई व्रत त्योहार
करते चन्दा को नमस्कार
पर माँ, कहती है अब टीचर
चन्दा पे बन सकता है घर
पलक झपकते चान्द पे जाते
कितने दिन वहाँ रह कर आते
वो भी अवनि सा इक टुकड़ा
कहां है बोलो उसका मुखड़ा
टीचर ने यह बात बताई
धरा की जब पड़ती परछाई
चांद पे हो जाता तम काला
नहीं किसी दानव का निवाला
न बढता वो न घटता है
एक ही जगह टिका रहता है
धरा से दूर वो जब भी होता
दिखने लगता है बस छोटा
पास धरा जब उसके आए
तो चन्दा पूरा दिख जाए
ग्रह एक वो भी भू जैसा
फिर करते क्यों उसकी पूजा
क्या नानी का चान्द कोई दूजा
करते हैं सब जिसकी पूजा
क्या सच! माँ मुझको बतलाओ
नानी वाला चान्द दिखाओ ।
...................................
...................................
माँ बोली! बेटा जो तुमने
सुनी थी अल्प कहानी
वही सारी बातें कहती थी
मुझे भी मेरी नानी
पर हमने तो आँख मूँद कर
ध्यान से सुनी कहानी
नहीं निचोड़ा बात को ऐसे
जैसे चान्द पे पानी
चान्द को कभी पकड़ पाएंगे
देखा नहीं था सपना
पर तुम वहां पे रह सकते हो
डाल के डेरा अपना
चान्द पे आज धमाके होते
पहुंचे बड़े ज्ञानी
अब सुन-सुनकर चान्द की बातें
चुप हो जाती नानी
कौन सा चान्द सत्य बेटा
कैसे मैं तुम्हें बतलाऊँ
तुम्हीं बताओ नानी का वो
चान्द कहां से लाऊँ?


जगमग आई दीवाली



फिर से जगमग करती आई
आओ हम त्योहार मनाएँ
मिलजुल कर सब बड़े और छोटे
दीपावली के दिये जलायें।

हँसी-ख़ुशी से सबके घर में
होगा लक्ष्मी जी का पूजन
उलसित होकर करें आरती
और लक्ष्मी जी को करें नमन।

अन्दर-बाहर, ऊपर-नीचे
टिम-टिम कर दीप जलें
प्रेम-भावना लेकर आओ
हम सब फिर से गले मिलें।

मावस की काली रजनी में
दिखता नहीं उजाला जब
दीपक जला-जला देखो
कितना उजियारा होता तब।

भाग-भाग कर सारे बच्चे
दिये जला कर दिखें निहाल
फुलझडी और फोड़ पटाखे
ख़ुशी से हो जाते हैं बेहाल।

सबके घरों में बनते हैं
कितने सारे इस दिन पकवान
उनको खाकर मिलजुल कर
फिर खाते ढेरों हैं मिष्ठान।

चारों तरफ सजावट दिखती
चहल-पहल लगे दूकानों में
प्रेम-भाव से क्लेश दूर हों
अपनों और अनजानों में।

आओ हम सब अपने मन के
सारे अंधियारों को मिटा डालें
समझ-बूझ और अपनेपन से
अंतरमन जगमग कर डालें।

आशा की किरणें बनें रोशनी
ना आये निराशा कभी भी पास
करें कामना अच्छाई की और
अपने मन में रखें हम विश्वास।

---शन्नो अग्रवाल


Wednesday, October 14, 2009

दिये जले सबके दिल में



जलते हैं दिए राह में,
      करने को उजियारा
प्रकाश की हुयी जय,
      और पराजित हुआ अँधियारा

प्यार का तेल और,
      सौहाद्र की बाती
जले सबके दिल में और,
      महके मन का गलियारा

अब आँख में चमक हो,
      और मन हो तम से दूर
फिर से हृदय में प्रेम का,
      रुधिर बहे सारा

इस दीवाली के अवसर पर,
      दिए हों अमिट अविरल
हर्ष और उल्लास का,
      संगम हो प्यारा-प्यारा

--दीपाली पंत तिवारी


Tuesday, October 13, 2009

राजा और हाथी का भार


एक था राजा , मोटा ताज़ा
हाथी उसके महल बिराजा
देख के हाथी मोटा चौड़ा
राजा ने विचारा थोड़ा
लगता नहीं यह मेरा साथी
फ़िर क्यों मुझसा मोटा हाथी
लगा वो करने मन में विचार
है कितना हाथी का भार
मैं भारी या हाथी भारी
तब जानेगी जनता सारी
जब इसका तोलेंगे भार
आते ही यूं मन में विचार
झट से मंत्री को बुलवाया
हाथी तोल का हुक्म सुनाया
मंत्री मन ही मन मुस्काया
मूर्खता पर गुस्सा आया
कहां तुला जो तोले हाथी
राजा को बस बातें आती
हाथ जोड़कर सीस नवाया
और राजा को कह सुनाया
दिखता आपका ज्यादा भार
हाथी तोल का त्यागो विचार
पर राजा को समझ न आई
अपनी बात फ़िर से दोहराई
तब मंत्री बोला महाराज
फ़ैसला इसका होगा आज
इक दूजे की करो स्वारी
पता चलेगा कौन है भारी
जो भी नहीं उठा पाएगा
वही ओ हलका कहलाएगा
सुनकर खुश हो गया राजा
पेट फ़ुला हाथी पे विराजा
खड़ा था हाथी मस्त मलंग
देखके राजा रह गया दंग
अब आई राजा की बारी
लग गई उसकी ताकत सारी
पर हाथी को हिला न पाया
हाथी नें पांव के तले दबाया
देखती रह गई परजा सारी
हाथी था राजा से भारी ।


आओ मनाएँ मिल के दिवाली



उजालों का त्यौहार दिवाली,
पटाखों का त्यौहार दिवाली,
और मिठाई का त्यौहार,
आओ मनाएँ मिल के दिवाली।

अमावस का अंधकार मिटायें,
अपने घर को खूब सजायें,
पूजा की थाली से ले कर,
घर के बाहर दीप जलायें।

मम्मी बड़े चाव से देखो,
आँगन में रंगोली बनाये,
पप्पा भी बाजार से जाकर,
खील, खिलौने, पटाखे लाये।

जगमग-जगमग करती जाती,
छज्जे पर बल्बों की लड़ियाँ,
मुन्नी भी मस्ती में देखो,
खूब जलाती है फुलझड़ियाँ।

चारो तरफ है धूम-धड़ाका,
पटाखे बहुत ही शोर मचायें,
नन्हा भैया डर के मारे,
बिस्तर के नीचे छुप जाये।

दिवाली हमको याद दिलाये,
बुराई पर अच्छाई की जीत,
तुम भी बातें अच्छी करना,
करना सबसे मनसे प्रीत।

--डॉ॰ अनिल चड्डा


Monday, October 12, 2009

मेरा नाम टमाटर



मुझे टमाटर कहते हैं सब
खाये दिलवाले और कंजूस
अगर कचूमर निकले मेरा
तो बन जाता पीने को जूस।

सब पसंद करते हैं मुझको
लाल-लाल सा रंग है मेरा
मुझको शर्म बहुत आती है
जब कोई छूता मेरा चेहरा।

छुरी से कच्चा काट के खाओ
तो मेरा बन जाता है सलाद
चाट-मसाला छिड़क के देखो
आयेगा कितना मुझमें स्वाद।

शक्कर डाल के मुझे काओ
तो बन जाता हूँ सुर्ख सा जैम
टोस्ट पे लगा के खाते हैं तब
हर दिन मुझको अंकल सैम।

नीबू, नमक-मिर्च संग पीसो
तो बन जाती खट्टी चटनी मेरी
और पकाओ जब आलू के संग
तो बन जाता हूँ एक तरकारी।

पतला-पतला काटो यदि मुझको
बटर-चीज़ संग भर ब्रेड के बीच
लंच-बॉक्स में रख स्कूल चलो
सैंडविच खाकर सब जाओ रीझ।

जोर की भूख लगी हो अगर तुम्हें
तो मैगी में मिला कर मुझे उबालो
डालो फिर तनिक नमक-मसाला
और डाल के प्लेट में खाना खा लो।

--शन्नो अग्रवाल


Saturday, October 10, 2009

गुस्सा



गुस्सा बहुत बुरा है। इसमें जहर छुपा है।

मीठी बोली से सीखो तुम, दुश्मन का भी मन हरना
जल्दी से सीखो बच्चों तुम, गुस्से पर काबू करना।

गुस्सा बहुत बुरा है। इसमें जहर छुपा है।

बाती जलती अगर दिए में, घर रोशन कर देती है
बने आग अगर फैलकर, तहस नहस कर देती है।

बहुत बड़ा खतरा है बच्चों गुस्सा बेकाबू रहना।
जल्दी से सीखो---

खिलते हैं जब फूल चमन में, भौंरे गाने लगते हैं
बजते हैं जब बीन सुरीले, सर्प नाचने लगते हैं।

कौए-कोयल दोनों काले किसको चाहोगे रखना।
जल्दी से सीखो--

करता सूरज अगर क्रोध तो सोंचो सबका क्या होता
कैसी होती यह धरती और कैसा यह अंबर होता।

धूप-छाँव दोनों हैं पथ में, किस पर चाहोगे चलना।
जल्दी से सीखो----

करती नदिया अगर क्रोध तो कैसी होती यह धरती
मर जाते सब जीव-जन्तु, खुद सुख से कैसे रहती।

जल-थल दोनों रहें प्यार से या सीखें तुम से लड़ना।
जल्दी से सीखो--

इसीलिए कहता हूँ बच्चों, क्रोध कभी भी ना करना
जब तुमको गुस्सा आए तो ठंडा पानी पी लेना।

हर ठोकर सिखलाती हमको, कैसे है बचकर चलना।
जल्दी से सीखो---




--देवेन्द्र कुमार पाण्डेय


Friday, October 9, 2009

चार एकम चार



चार एकम चार,
चार दूनी आठ,
मिल-जुल के खाना,
बराबर-बराबर बाँट।

चार तीये बारह,
चार चौके सोलह,
मुसीबत के वक्त,
होश नहीं खोना।

चार पंजे बीस,
चार छेके चौबीस,
मत हारना हिम्मत,
करते रहना कोशिश।

चार सत्ते अट्ठाईस,
चार अट्ठे बत्तीस,
मात, पिता, गुरूओं से,
लेना तुम आशीष।

चार नामे छत्तीस,
चार दस्से चालीस,
अन्तर्मन को हरदम,
रखना तुम खालिस।

--डॉ॰ अनिल चड्डा

(दो का पहाड़ा)तीन का पहाड़ा


Thursday, October 8, 2009

भीखू चूहा और बहादुर शेर



बच्चो, आओ आज मैं आप सबको एक चूहे और एक शेर की कहानी सुनाती हूँ।

एक बहुत घना जंगल था जिसमें तरह-तरह के तमाम सारे जानवर रहते थे और वहां पर चूहों की भी एक बड़ी सी कालोनी थी जहाँ का लीडर एक मोटा सा चूहा था जो एक पेड़ के नीचे अपना बिल बना कर रहता था। उस चूहे का नाम था भीखू। उस जंगल में एक बहुत ही खूंखार शेर भी रहता था जिसका नाम था बहादुर। वह अपने परिवार के साथ जंगल के बीच में एक ऊंची सी गुफा में रहता था। आये दिन वह शेर बड़ा उत्पात मचाता रहता था। जब कभी भूख लगती तो किसी छोटे या बड़े जीव को खा जाता था। सभी जानवर उससे बड़े सहमे और डरे हुये से रहते थे।

एक दिन की बात है। वह मोटा चूहा जो अपने बिल में एक पेड़ के नीचे रहता था, चारों तरफ झाँककर तसल्ली कर लेने के बाद कि उस शेर बहादुर का कहीं दूर तक पता नहीं है, अपने बिल से निकल कर आया और गर्मीं के मारे परेशान होकर पेड़ के नीचे एक हरे पत्ते को ओढ़कर सो गया। उसने सोचा की पत्ते को ओढ़ लेने के बाद उसे शेर या कोई और जानवर नहीं देख पायेगा। वह आराम से कुछ घंटे तक सोता रहा।

अब इतनी गर्मी में शेर कहाँ अपनी माद में बैठा रह सकता था। सो वह भी टहलते-घूमते उस तरफ आ गया। उस पेड़ के नीचे से गुजर रहा था कि चूहे ने एक बड़ी जोर की चीख मारी। लगता था कि शेर का पंजा चूहे की पूँछ पर पड़ गया था। बहादुर वहीं खडा हो गया और जोर से गरजा। चूहे की तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी और काँपने लगा तथा जान बचाने के लिये भागने लगा। किन्तु शेर ने देख लिया और अपने पंजे में दबोच लिया। शेर ने कहा ''अब मैं तुझे खा जाऊँगा''। चूहा रोने लगा और मिन्नतें करने लगा, '' हे वनराज, आप मुझ पर दया करो मैं निर्बल हूँ और आप बहुत ताकत वाले हो, और फिर मेरे नन्हे से शरीर को खाकर तुम्हारा पेट भी ना भरेगा''। शेर ने कुछ सोचा और कहा, '' अगर मैं तुझे छोड़ दूं तो तू मुझे बदले में क्या देगा''? चूहा बोला, '' सरकार अब आपसे क्या तकरार करुँ बस इतना कह सकता हूँ कि मुझपर आपका यह अहसान एक क़र्ज़ की तरह होगा और मैं इसे सही मौका आने पर चुकाने की कोशिश करूँगा.....आज आप मुझे जाने दें। घर में मेरे बीबी बच्चे इन्तजार कर रहे होंगे, उनका इस दुनिया में मैं अकेला सहारा हूँ। अगर आपने मुझे खा लिया तो उन सबका क्या होगा''? शेर ने चूहे को छोड़ दिया और चूहा शेर को दुआयें देता हुआ सर पर पैर रखकर सरपट अपने बिल में भाग गया।

काफी दिन बीत गये और अब वह चूहा और शेर मित्र बन गये थे। वह शेर जंगल के और जानवरों पर तो हमला करता था किन्तु उस चूहे को नजरअंदाज कर देता था। इसीलिये वह चूहा अब चैन की साँसें लेता हुआ आराम से इधर-उधर मस्ती में अपना रोब दिखाता हुआ टहलता रहता था। शेर से दोस्ती करने का सब जानवरों पर अपनी शान झाड़ता रहता था। एक दिन जंगल में कुछ आदिवासी लोग आये और जानवरों का शिकार करने के लिये जंगल में एक जगह बड़ा सा गड्ढा खोदा और उसे तमाम झाड़-फूंस से भर दिया और एक पेड़ में रस्सी बाँध कर उसके एक छोर में फंदा बनाया और गड्ढे पर के सूखे पत्तों पर उस फंदे को रख दिया और उसे भी पत्तों से छिपा दिया। और वे लोग अगले दिन को आने की सोच कर चले गये। थोडी देर में दो लोमड़ियाँ उधर आयीं और गड्ढे में गिर गयीं उनके शरीर में तमाम कांटें चुभे और वह बेहोश होकर गड्ढे में ही पड़ीं रहीं। फिर थोडी देर में वह शेर भी घमंड से अपनी गर्दन ऊंची किये हुये इधर-उधर देखता वहां से दहाड़ता हुआ निकला और फिर......धम्म!! उसका पैर फंदे में जाकर फंस गया था और नतीजा यह हुआ की वह उल्टा लटक गया। अब तो शेर की पूछो न....दहाड़ मार कर उसने जंगल हिला दिया। दोनों लोमड़ियों को जब होश आया और शेर की नजदीकी का अहसास हुआ तो वह दम साधे चुपचाप गड्ढे में ही पड़ी रहीं। जब चूहे ने शोर सुना तो वह अपने बिल के बाहर निकल कर शोर की दिशा में चलता हुआ जा पहुंचा। और देखा की शेर लाचार होकर उल्टा लटका है और रह-रह कर गर्जना कर रहा है। शेर ने जैसे ही चूहे को देखा तो उसे पास बुलाया और कहा कि वह कुछ करे। चूहे ने कहा, '' तुम कोई चिंता ना करो एक दिन तुमने मेरी जान बख्शी थी और आज तुम मुसीबत में हो तो अब मेरा फ़र्ज़ बनता है की इस मुसीबत के समय मैं तुम्हारी सहायता करुँ''। चूहा रस्सी के सहारे शेर तक पहुँच गया और उसने शेर के पैरों में फंसे फंदे को अपने दांतों से कुतर दिया और फिर एक बार आवाज़ हुई धम्म !! क्योंकि शेर अब फंदे से मुक्त होकर जमीन पर आ गिरा था। शेर चूहे की ईमानदारी से बहुत प्रसन्न हुआ और चूहे के सर से भी अहसान का बोझ उतर गया था। दोनों ही बहुत खुश थे।

तो बच्चों इस कहानी का अभिप्राय यह है कि कोई भी शरीर से बड़ा होने पर पूरी तरह से बलवान नहीं होता और कोई भी शरीर से छोटा होने पर भी पूरी तरह से बेवकूफ नहीं होता छोटों में भी अकल होती है। इसीलिये आप लोगों ने शायद यह कहावत भी सुनी होगी की ''अकल बड़ी या भैंस''। और इस कहानी से यह भी शिक्षा मिलती है कि हमें बहुत कठोर दिल का नहीं होना चाहिये और मुसीबत के समय एक दूसरे के काम आना चाहिये।

---शन्नो अग्रवाल


Tuesday, October 6, 2009

बीरबल फिर ,जहाँपनाह फुर्र

बीरबल फिर ,जहाँपनाह फुर्र

एक बार बादशाह अकबर बीमार हो गए .उनकी बीमारी भी विचित्र थी .बहुत उपाय करने पर भी उन्हें नींद नही आती थी .वैद्य और हकीम भी उपचार करते -करते थक गए थे ।
एक दिन चीन से एक हकीम आया .उसने बादशाह की जांच की और एक युक्ति बताई .उसने कहा ,"आप रोज रात को सोते समय एक लम्बी कहानी सुना कीजिये ,इससे आपको नींद आएगी और धीरे -धीरे आपका रोग मिट जाएगा ।"
अकबर ने कहा ,"रोज -रोज मुझे कहानी कौन सुनाएगा ?"
बीरबल ने कहा ,"चिंता की कोई बात नही है .दरबारी तो हैं ही !रोज एक दरबारी आपके पास आएगा और कहानी
सुनाएगा .एक दिन मै भी कहानी सुनाने आऊंगा ।"बादशाह को बीरबल की योजना पसंद आई ।
फिर तो कहानी कहने के लिए प्रतिदिन एक -एक दरबारी आने लगा .लेकिन यह युक्ति सफल नही हुई .दरबारी भी कहानी कहते -कहते थक जाते आर अंत में वे स्वयं ही ऊंघने लगते ।
एक दिन बीरबल की बारी आई .बीरबल ने कहानी कहना शुरू किया -
"एक था जंगल "
"फिर "बादशाह ने कहा ।
"जंगल में एक झोपडी थी .उसमे किसान अपने परिवार के साथ रहता था ।"
"फ़िर ?"
किसान खेती करता ,फसल पैदा करता और खाने के लिए अनाज इकठ्ठा करता ।
"फिर ?"
"पक्षी उसकी झोपडी में घुस जाते और एक- एक दाना लेकर उड़ जाते ।"
"फिर ?"
बीरबल ने सोचा इस फिर -फिर का उपाय करना पड़ेगा ।
बीरबल ने कहा ,"किसान मिटटी का एक बड़ा- सा बर्तन ले आया .उसमे अनाज भरकर एक मोटे कपड़े से बर्तन का मुहँ बंद कर दिया ।"
"फिर "
"पक्षी झोपडी में जाते ,परन्तु उन्हें दाने न मिलते "
"फिर ?"
"उस झोपडी में एक चूहा रहता था .एक चतुर चिडिया ने उससे दोस्ती कर ली .फिर उसने चूहे से अनाज वाले मुहँ पर बंधेहुए कपड़े को कुतरवा दिया ।"
"फिर ?"
"फिर एक के बाद एक पक्षी आते गए .इस प्रकार झोपडी के आगे हजारों पक्षी इकट्ठे हो गए ।उनमे से एक पक्षी झोपडी में गया .उसने कोठार में से दाना लिया फिर उड़ गया ,फुर्र ......"
"फिर ?"
"दूसरा पक्षी आया ,दाना लिया और उड़ गया फुर्र ...... . "
"फिर ?"
"तीसरा पक्षी आया ,दाना लिया और उड़ गया फुर्र ...... "
"फिर ?"
"चौथा पक्षी आया ,दाना लिया और उड़ गया फुर्र ...... "
"फिर ?"
पांचवा ,छठवा ,सातवां, आठवां , नौवां पक्षी आया .दाना लिया और उड़ गया फुर्र ...... "
बीरबल की फुर्र -फुर्र से बादशाह पूरी तरह ऊब गए .उन्होंने कहा ,"अब कितने पक्षी उड़ने बाकी हैं "।
बीरबल ने कहा , "जहाँपनाह अभी तो नौ ही ude हैं .एक -एक करके हजारों पक्षियों को उड़ने में देर तो लगती है न ?"
अकबर ने जम्हाई लेते हुए कहा ,"अब बाकी पक्षियों को तुम कल उडाना .आज तो मुझे नींद आ
रही है "करवट बदलकर बादशाह ऊंघने लगे .बीरबल अपने घर चले गए ।
दूसरे दिन अकबर ने कहा ,"बीरबल !तुम्हारी कहानी में मझे बड़ा मजा आया ,मुझे अच्छी नींद आई ।"
बीरबल ने कहा ,"फिर ?"
बादशाह बोले -"फुर्र ?"
दोनों हस पड़े


संकलन
नीलम मिश्रा


Monday, October 5, 2009

तीन एकम तीन



तीन एकम तीन
तीन दूनी छ:
रोज-रोज नहा के,
साफ-सुथरा रह।

तीन तीए नौ,
तीन चौके बारह,
मेहनत करने वाला,
कभी नहीं हारा।

तीन पंजे पंद्रह,
तीन छेके अट्ठारह,
साफ दिल वाला,
कभी झूठ नहीं बोला।

तीन सत्ते इक्कीस,
तीन अट्ठे चौबीस,
हरदम रहना,
कक्षा में चौकस।

तीन नामे सत्ताईस,
तीन दस्से तीस,
कभी नहीं होना,
किसी से उन्नीस।

--डॉ॰ अनिल चड्डा

(दो का पहाड़ा)


Sunday, October 4, 2009

आओ गिट्टे खेलें

आओ आओ गिट्टे खेलें,
अभी तो हम हैं घर में अकेले,

मम्मी जब बाजार से आये,
हमको पढ़ने को है बिठाये,
आओ मिल कर मौज मनायें,
आओ आओ गिट्टे खेलें।

शाम को पप्पा भी आ जाते,
डाँट के हम को चुप हैं कराते,
कहते क्यों हो शोर मचाते,
आओ आओ गिट्टे खेलें।

होम-वर्क भी पूरा करना,
मम्मी भी बेचारी थक जाती,
थोड़ा उनका काम भी करना,
आओ आओ गिट्टे खेलें ।

भैय्या शाम को क्रिकेट खेले,
फुटबाल खेले, हाकी खेले,
हम रह जाते घर में अकेले,
आओ आओ गिट्टे खेलें।

--डॉ॰ अनिल चड्डा


Friday, October 2, 2009

अपने प्यारे बापू

कितने अच्छे थे अपने बापू
सादा सा जीवन था उनका
लड़े लडाई सच की ही वह
ध्यान हमेशा रखा सबका।

हिंसा ना भाती थी उनको
साथ अहिंसा का अपनाया
सबके लिए थी दया-भावना
बड़ा काम कर दिखलाया।

भारत को स्वतंत्र करने में
जीवन लगा दिया सारा
अंग्रेजों को बाहर करने में
ऊंचा था उनका ही नारा।

दुबली-पतली काया थी पर
हिम्मत उनमें थी लोहे जैसी
मन के बहुत ही पक्के थे वह
बातें न करते थे ऐसी-वैसी।

सादा सा खाना खाते थे
सादा सा ही था पहनावा
बोल-चाल और घमंड का
कभी नहीं करा दिखावा।

सरल स्वभाव बड़ा था उनका
अडिग रहे वह निश्चय पर
सत्य और न्याय को पूजा
नहीं था उनको किसी का डर।

साबरमती के संत ने दी
सच्ची अपनी पहचान
करी भलाई देश की और
हो गया उस पर कुर्बान।

अंग्रेजों के चंगुल से छीना
देश किया अपना आजाद
शांति और अहिंसा की सीखें
हम सब रखें उनकी याद।

---शन्नो अग्रवाल


क्या खूब थी उनकी लाठी

वो झेल न पाये आँधी,
जो ले कर आये गाँधी,
बेकार हुई सब तोपें,
क्या खूब थी उनकी लाठी।

सदियों में वो दिन आया,
भारत ने हीरा पाया,
उसने जब आँख थी खोली,
इक नया सवेरा आया।

हमें अपनी धरती देने को,
उसने खुद को था माटी किया,
दे हमें खुले चमन की हवा,
वो खुद न जाने कहाँ गया।

दुश्मन तो कुछ न बिगाड़ सके,
अपनों ने गोली मारी थी,
समझो कि माली ने खुद,
अपनी ही बगिया उजाड़ी थी।

अपना सब कुछ दे कर के,
इस गुलशन को आबाद किया,
तोड़ जंजीर गुलामी की,
हमको उसने आजाद किया।

याद वो बरबस आता है,
जब दो अक्टूबर आता है,
ऐसे महापुरुष के आगे,
सिर खुद ही तो झुक जाता है।

--डॉ॰ अनिल चड्डा