फिर से सर्दी आई रे
फिर से सर्दी आई रे,
धीरे-धीरे आई रे।
सुबह-सुबह उठना न भाये,
ठंडे पानी से कौन नहाये,
सोच कंपकपी आई रे।
फिर से सर्दी आई रे।
होमवर्क करने न पाऊँ,
हाथ कहें, क्यों साथ निभाऊँ,
हमें रजाई भाई रे।
फिर से सर्दी आई रे।
मम्मी की है गोद न्यारी,
गर्मी दे है प्यारी-प्यारी,
नींद सुहानी आई रे।
फिर से सर्दी आई रे।
गर्म-गर्म पिलाओ चाय,
रोटी भी हम सब गर्म ही खायें,
हलवे की बारी आई रे।
फिर से सर्दी आई रे।
काजू-किशमिश खूब चबायें,
मूँगफली के मजे उडायें,
सबने मौज मनाई रे।
फिर से सर्दी आई रे।
--डॉ॰ अनिल चड्डा
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7 पाठकों का कहना है :
अनिल जी,
जब भी सर्दी आती है तो हमें भी बचपन, अलाव और माँ की गोद याद आ जाते हैं। बहुत बढ़िया कविता लिखी है आपने।
शैलेशजी,
आपको कविता पसन्द आई, बहुत-बहुत शुक्रिया । और भी सभी जिन्होने यह कविता पढ़ी उनका भी शुक्रिया । प्रोत्साहन के लिये आभारी हूँ ।
anil ji achchi kavita hai.aapki kavita record kar di hai ,agli fursat me mil jaayegi aapko .
are wah anil ji.. bahut khoobsurat..
धन्यवाद, नीलमजी । कुलवंतजी, आपको कविता अच्छी लगी, मन को प्रोत्साहन मिल गया । आप से मैं विशेष उम्मीद रखता हूँ ।
आपकी यह सर्दी वाली कविता भी क्या खूब मौके की है! हम तो ठिठुर रहे हैं अभी से ही ( असल में यहाँ सर्दी भी हो रही है. )
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