Friday, July 31, 2009

भाई

कितना नटखट मेरा भाई,
खूब शैतानी करता भाई .
उसकी मस्ती से सब डरते
पर डांट कभी न उसने खाई .

मुझसे लेकिन वह है डरता,
मेरी सब बातें वह सुनता .
चोरी उसकी जब मैं पकड़ूं
वह कान भी अपने पकड़ता .

पढ़ने में वह अव्वल रहता,
गलत नही वह कुछ भी सहता .
खेलकूद में सबसे आगे,
पर मुझसे वह जीत न सकता .

दीवाली हो यां फिर होली,
करता है वह खूब ठिठोली .
लड़ता चाहे कितना मुझसे,
मीठी बड़ी है उसकी बोली .

दुनिया में है सबसे न्यारा,
भाई बहन का रिश्ता प्यारा .
रक्षा बंधन हो यां दूज,
प्यार की बहती पावन धारा .

कवि कुलवंत सिंह


Thursday, July 30, 2009

पप्पा चंदा ला दो


पप्पा-पप्पा चंदा ला दो,
मुझको उसके संग खिला दो,
तारों संग वो रोज खेलता,
टुकर-टुकर मैं इधर देखता,
उसको पता मेरा बता दो,
मुझको उसके संग खिला दो ।

पप्पा मुझको ये बतला दो,
चंदा रात में ही क्यों आता,
दिन में क्यों है वो छुप जाता,
क्या सूरज की गर्मी से डर,
या फिर वो घर में सो जाता,
मुझको उसका घर दिखला दो,
मुझको उसके संग खिला दो ।


चंदा को मामा सब कहते,
फिर क्यों इतनी दूर वो रहते,
क्यों बच्चों की नहीं हैं सुनते,
चौड़ा सा मैदान है उनका,
फिर भी हम से नहीं खेलते,
मेरे लिये चंदा को मना लो,
मुझको उसके संग खिला दो ।


--डॉ॰ अनिल चड्डा


Wednesday, July 29, 2009

इंद्रधनुष- कविता और पेंटिंग

प्रणव गौड़ 'कुश' अब कक्षा 2 में पहुँच गये हैं। इन्होंने इंद्रधनुष की पेंटिंग बनाई भी है और उस पर कविता भी लिखी है।


Monday, July 27, 2009

बन्दर और गिलहरी

बन्दर और गिलहरी

एक पेड़ पर एक बन्दर रहता था |उसी पेड़ पर एक गिलहरी रहती थी |बन्दर चालाक था |गिलहरी भोली भाली थी| एक दिन गिलहरी एक अमरुद ले आई |बन्दर ने अमरुद छीन लिया |गिलहरी बहुत रोई |बन्दर उसे रोते देखकर
भी अमरुद खाता रहा आर हँसता रहा |यह देखकर गिलहरी को बहुत बुरा लगा ,पर वह कुछ न कर सकती थी
|बन्दर सारा अमरुद खा गया |गिलहरी ने मन में सोचा -"मै जरूर बन्दर से बदला लूंगी "|

अमरुद खाकर बन्दर टहलने चला गया |लौट कर आया तो उसके पास रोटी थी |बन्दर रोटी कहीं सेचुरा कर लाया था |रोटी लेकर वह पेड़ पर जा बैठा |अचानक उसने देखा कि एक दूसरा बन्दर उसकी रोटी छीनना चाहता है |वह रोटी पेड़ पर छोड़कर दूसरे बन्दर के पीछे भागा |गिलहरी यह सब देख रही थी |उसने पेड़ पर से रोटी
उठा ली |रोटी लेकर वह पेड़ के खोखल में घुस गई |
बन्दर ने गिलहरी को रोटी ले जाते देख लिया |वह दौड़ता हुआ आया और खोखल में घुसने कि कोशिश करने लगा | खोखल का मुहँ छोटा था बन्दर बड़ा था ,इसलिए घुस नही पाया |गिलहरी आराम से बैठी रोटी खाती रही |बन्दर बाहर उछल कूद मचाता रहा |
गिलहरी ने अन्दर से कहा ,-"बन्दर मामा ,अब रोटी नही मिलेगी |इसी को कहते हैं _"जैसे को तैसा "
संकलन
नीलम मिश्रा


Friday, July 24, 2009

बहना

बहना

मेरी बहना का क्या कहना
चपल सलोनी हर पल हसना .
लड़ना भिड़ना और झगड़ना
लेकिन फिर मिल जुल कर रहना .

बुलबुल सी दिन रात फुदकना
नही किसी से कभी भी डरना .
सीढ़ी ले छज्जे पर चढ़ना
उसके बिन सूना है अंगना .

धमा चौकड़ी खूब मचाती
मेरी पुस्तक वह छिपाती .
खिलौने लेकर भाग जाती
पर पापा से डांट न पाती .

सुबह देर तक सोती रहती
लेकिन मम्मी भी चुप रहती .
टिकिया चाट मजे से खाती
मेरी प्लेट भी गप कर जाती .

वैसे तो मुझसे वह लड़ती
हर चीज अपनी वह समझती .
कोई जरूरत जब आ पड़ती
बड़े प्यार से भैया कहती .

मेरी बहना का क्या कहना
शोख है चंचल घर का गहना .
ईश्वर मेरी बात तूं सुनना
सबको ऐसी बहना देना .

कवि कुलवंत सिंह


Monday, July 20, 2009

जादुगर ने पकड़ा चाँद


कहती थी मुझे मेरी नानी
आज सुनो सब वही कहानी
गाँव मे रहता था जादुगर
नही था उसका अपना घर
बच्चो को वो खेल दिखाता
जो भी मिलता वो खा लेता
रात को बाहर ही सो जाता
पर नही अपना घर बनाता
एक बार जब वो सोया था
मीठे सपनो मे खोया था
चलने लगे आँधी तूफान
पडी खतरे मे सबकी जान
आसमान मे बादल छाए
चाँद भी कही नज़र नही आए
छाया अँधकार था काला
ऐसे मे चाहिए था उजाला
जादुगर बडा समझदार था
जादु मे भी होशियार था
उड कर गया वो नभ मे ऐसे
उडते नभ मे पक्षी जैसे
पहुँचा वो बादल के पार
चाँद की रोशनी दिखी अपार
पकडा उसने चाँद को जाकर
किया उजाला धरा पे लाकर
आई लोगो की जान मे जान
की इक दूजे की पहचान
रात मे भी हो गया उजाला
और जब मिट गया तम काला
फिर से चाँद को छोड के आया
आसमान मे जोड के आया
की थी उसने सबकी भलाई
मेहनत उसकी थी रँग लाई
.....................
.....................
बच्चो सुनो ध्यान से बात
समझदारी है बडी सौगात
चाँद पे तुम भी जा सकते हो
सबको राह दिखा सकते हो
कर सकते हो तुम भी उजाला
मिटा सकते हो हर तम काला
*********************


Friday, July 17, 2009

फूल

फूल

कोमल कोमल फूल
प्यारे प्यारे फूल .

रंग रंग के फूल
निखरे निखरे फूल .

हर पल हंसते फूल
मुस्काते हैं फूल .

बाग खिलाते फूल
जग महकाते फूल .

हार बनाते फूल
मंदिर चढ़ते फूल .

वेणी बनते फूल
बाल में सजते फूल .

सेज सजाते फूल
शव पर चढ़ते फूल .

भंवरे जाते फूल
जब भी मिलते फूल .

सीख सिखाते फूल
रहे न मन में शूल .

खूब लगे इनसान
फूल सजे परिधान .

फूलों से सत्कार
सबको इनसे प्यार .

बनकर फूल समान
बांटो खुशी जहान .

कवि कुलवंत सिंह


Friday, July 10, 2009

आम

सभी फलों का बाप
आम खाओ आप .

कैसे कैसे नाम
सबको कहते आम .

आपुस, मलीहाबाद
लंगड़ा जिंदाबाद .

केशर, दसहरी खास
सबको आते रास .

मिठास से भरपूर
गूदे रस से चूर .

आम भले हो एक
गुण इसके अनेक .

अमिया बने अचार
पियो बना के सार .

दाल में कच्चा डाल
अमचूर पूरा साल .

गर्मी से बेहाल
’पना’ करे निहाल .

फलों का राज आम
खाओ, न देखो दाम .

कवि कुलवंत सिंह


Thursday, July 9, 2009

चाणक्य और उसकी माता

चाणक्य और उसकी माता
( वज्र सा कठोर ,फूल सा कोमल )
चाणक्य अपने समय का लौहपुरुष था राज द्रोहियों का दमन करने में उसे दया नहीं आती थी शासन में वह वज्र की तरह कठोर और हृदयहीन होकर भी अपने व्यक्तिगत जीवन में फूल की तरह कोमल ,सरस ,एवं सुहृदय था | चाणक्य दिमाग का ही नहीं दिल का भी बड़ा था इस सम्बन्ध में उसके जीवन की एक घटना उल्लेखनीय है ,चाणक्य जब बड़ा हुआ तो एक दिन उसकी माँ उसका मुहँ देखकर रोने लगी बेटे ने इसका कारण पूछा तो वह बोली -बेटा ,तुम्हारे भाग्य में राज्य छत्र धारण करना लिखा है ; तुम थोडा ही प्रयत्न करके किसी बड़े राज्य के स्वामी बन जाओगे -इसी को सोचकर रो रही हूँ ! चाणक्य ने हंसते हुए कहा -माँ इसमें रोने वाली क्या बात है ,तम्हारे लिए वह बड़े हर्ष की बात होनी चाहिए सच -सच बताओ ,तुम क्यों रोती हो !माँ ने कहा -बेटा ,मै अपने दुर्भाग्य पर रो रही हूँ अधिकार पाकर लोग अपने सगे सम्बन्धियों तक की उपेक्षा करने लगते हैं ,तुम भी राजा होते ही भूल जाओगे ,"राजा जोगी काके मीत "उस समय तुम मेरे प्रेम को ठुकरा दोगे ,मुझे पूछोगे भी नहीं ,मेरा लाल मेरे हाथों से निकल जाएगा यही सोचकर रोती हूँ , चाणक्य ने फिर पूछा -माँ ,तुमने कैसे जाना कि मेरे भाग्य में राजा होना लिखा है ? माता ने कहा -बेटा तुम्हारे सामने के दोनों दांतों से पता चलता है कि तुम राज वैभव का भोग करोगे सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार ऐसे दांतों वाला मनुष्य राजा होता है चाणक्य ने उसी समय एक पत्थर से अपने दोनों दांतों को तोड़ डाला और उन्हें फेंककर कहा -माँ ,अब तुम निश्चिंत हो जाओ ;अब मै राजा नहीं बन सकता ; इसलिए सदा तम्हारे पास ही रहूंगा बेटे का यह अद्भत कर्म देखकर माँ चकित हो गयी वह आँचल से रक्त पोंछते हुए बोली -चाणक्य यह तूने क्या किया ?चाणक्य ने सहज भाव से कहा -माँ ,तुम्हारी ममता के आगे मै संसार की बड़ी से बड़ी वस्तु को भी तुच्छ मानता हूँ मेरी दृष्टि में वह इन दांतों से और राज्य से कहीं अधिक मूल्यवान है माता ने प्रेम से गदगद होकर पुत्र को गले लगा लिया उस दिन से चाणक्य खंडदंत नाम से प्रसिद्ध हो गया
संकलन
नीलम मिश्रा


Tuesday, July 7, 2009

पारुल

रुन-झुन करती आयी पारुल।
सब बच्चों को भायी पारुल।
बादल गरजे, तनिक न सहमी।
बरखा लख मुस्कायी पारुल।
चम-चम बिजली दूर गिरी तो,
उछल-कूद हर्षायी पारुल।
गिरी-उठी, पानी में भीगी।
सखियों सहित नहायी पारुल।
मैया ने जब डाँट दिया तो-
मचल-रूठ-गुस्सायी पारुल।
छप-छप खेले, ता-ता थैया।
मेंढक के संग धायी पारुल।
'सलिल' धार से भर-भर अंजुरी।
भिगा-भीग मस्तायी पारुल।

-संजीव 'सलिल'


Monday, July 6, 2009

मेरे नाना, मेरे नाना, अच्छी सी तुम टॉफी लाना

मेरे नाना, मेरे नाना,
जब मैं तुम से कहता हूँ कि,
अच्छी सी तुम टाफी लाना,
कहते हो क्यों ना, ना, ना, ना !

रोज सुबह जब उठता हूँ तो,
दाँत माँजने को हो बुलाते,
प्यार से फिर तुम गोद में ले कर,
मुझको हो तुम दूध पिलाते,
ना-नुकर जब करता हूँ,
लाली-पाप हो मुझे दिखाते,
वैसे ग़र मैं माँगू टाफी,
करते हो तुम ना, ना, ना, ना ,
ऐसा क्यों करते हो नाना !

सुनो ऐ मेरे प्यारे बच्चे,
तुम हो अभी अक्ल के कच्चे,
ढेर-ढेर सी टाफी खा कर,
दाँत तुम्हारे होंगें कच्चे,
ग़र टाफी ज्यादा खाओगे,
मोती-से दाँत सड़ाओगे,
चबा-चबा कर फिर ये बोलो,
खाना कैसे खाओगे?
तभी तो कहता मैं हूँ तुमको,
कम से कम टाफी तुम खाना,
नुक्सान नहीं दाँतों को पहुँचाना,
नाना की तुम बात को मानो,
टाफी तुम ज्यादा न खाना,
टाफी तुम्हे तभी मिलेगी,
बोलो जब तुम हाँ, हाँ, नाना।

डॉ॰ अनिल चड्डा


Sunday, July 5, 2009

मक्खी और मच्छर का बसेरा

मक्खी बोली मच्छर भाई
खास खबर इक मै लाई
सुनकर तुम होगे हैरान
बचगी अब न अपनी जान
जगह-जगह पर हुई सफ़ाई
नही रहा कहीं गंदा
अब न फ़ले-फ़ूलेगा भाई
तेरा मेरा धन्धा
पानी को सब ढक कर रखते
पानी को भी बंद
घर के बाहर भी न दिखता
नाली में भी गंद
गंदा पानी कहीं न ठहरे
लग गए हैं गंदगी पर पहरे
बोलो अब कहां जाएंगे
कहां रहेंगे क्या खाएंगे
कैसे फ़ैलेगी बीमारी
न फ़ैलेगी कोई महामारी
खत्म हो गया अब तो भैया
तेरा मेरा खेल
अब कैसे हो पाएगा अपना
बीमारी से मेल
लगता मौत निकट आई है
नहीं तेरा मेरा जीवन
बोलो भाई अब क्या करेंगे
क्या कहता है तेरा मन
मक्खी की आंखें भर आईं
देने लगी दुहाई
मच्छर के सर पर भी सुनकर
नई मुसीबत आई
बोला मच्छर मक्खी बहना
सच है तेरा कहना
जाने क्यों इन सबने सीखा
साफ़-सफ़ाई में रहना
गंदगी का कर दिया सफ़ाया
कचरा घर से हटाया
हम तुम दोनों बाहर निकाले
बीमारी को भगाया
चलो कहीं अब दूर देश में
जाकर डालें डेरा
साफ़-सफ़ाई पर तो अपना
जोगी वाला फ़ेरा
चलो कहीं अब जाकर ढूंढें
फ़िर से गंदा माल
वहां पहुंच्कर फ़िर से हम-तुम
करेंगे खूब धमाल
यहां तो अब न गलने वाली
तेरी मेरी दाल
गंदगी नहीं तो नहीं चलेगी
कोई भी अपनी चाल
उड गए दोनों मक्खी मच्छर
लिए बीमारी साथ
बच्चो तुम भी हर दम रखना
सुथरे अपने हाथ
धोकर हाथ ही खाना खाना
गंदगी न फ़ैलाना
गंदा करके आस-पास
बीमारी को न बुलाना
साफ़ सफ़ाई रखोगे तो
नहीं होगे बीमार
खुश बच्चों से ही रहता है
सारा सुखी परिवार


Saturday, July 4, 2009

पहेलियाँ हमारी

दिन शनिवार का हो ,साथ में पहेलियाँ न हो तो फिर कैसा शनिवार और क्या दिमाग और क्या दिमाग की कुश्ती मतलब सब कुछ गुड .........ग़लत शब्द न लिखे जाए तो ही अच्छा है ,क्योंकि लोगों का कहना है इससे बच्चे ग़लत

भाषा सीखेंगे ,पर अपनी भाषा चाहे ग़लत हो या सही ,वो तो अपनी ही है ,तो इधर उधर कि बातें न करते हुए सीधे अपनी पहेलियों की कक्षा प्रारंभ करते हैं ...............

1)ज्यों ज्यों यह बढ़त है,
त्यों -त्यों ही घट जाय
जगत भर का नियम ये
केहू मिटा नाहीं पाहीं

2)गरजा बादल ,बरसी धूल
बूझो या करो हार कबूल

3)रौंदे जिसको,उसको काटे,
कभी बनता हत्यारा
इसे जेल न फांसी होती
रखे बिना नहीं चारा

४)घोड़ा,हाथी,ऊँट, अरु
ले पैदल की मीर
दोउ और भिड़त खड़े ,
राजा और वजीर

5)जरा सी डिबिया डिब डिब करे ,
मानक मोती गिर -गिर झरे

किन्ही अपरिहार्य कारणों से प्रकाशित नहीं हो पायी थी आपकी पहेलियाँ ,जल्दी से अपने दिमाग को लड़ा दीजिये ,पहेलियाँ खासी आसान हैं ,आप सभी के लिए ,आप सभी के जवाबों की प्रतीक्षा में ,आपकी शन्नो बेटा व् नीलम मिश्रा

संकलन- नीलम मिश्रा


Wednesday, July 1, 2009

बंदर की दुकान (बाल-उपन्यास पद्य/गद्य शैली में)- अंतिम भाग

चौदहवें भाग से आगे....

15. इतने में बंदरिया आई
खरी खोटी बंदर को सुनाई
बोली तुझमें नहीं अक्ल
पानी में जा देख शक्ल
रहा वही बंदर का बंदर
क्यों दुकान जंगल के अंदर
पास में था जो सब गँवाया
दुश्मन अपना सबको बनाया
हुई न एक टका भी कमाई
सारी धन संपदा गँवाई
बैठा रह तू यहाँ अकेला
मैं तो चली देखने मेला
सुनकर शेर ने सारी बात
बंदर को इक मारी लात
भागा अपनी बचा के जान
बंद हुई बंदर की दुकान

15. इतने में बंदरिया आकर बंदर को खरी खोटी सुनानी लगी। अरे तुझमें जरा सी भी अक्ल नहीं है, जंगल में दुकान क्यों खोली। कमाई तो एक पैसा भी नहीं हुई बल्कि सबको अपना दुश्मन बना लिया और पास में जितना था वो भी सब गँवा दिया है तुमने। तुम वही बंदर के बंदर हो, जरा पानी में जाकर अपनी शक्ल तो देखो। अब तुम अकेले यहाँ बैठे रहो मैं तो मेला देखने जा रही हूँ।

शेर ने बंदरिया की सारी बातें सुनकर बंदर को एक लात मारी। बंदर अपनी जान बचा कर वहां से किसी तरह से भाग गया और बंदर की दुकान बंद हो गई।

~~ समाप्त ~~