जीवन का है खेल निराला
जीवन का है खेल निराला
तुम देखो और मैं देखूँ,
जैसे बुना मकड़ी का जाला
तुम देखो और मैं देखूँ ।
रंग बिरंगे लोग हैं जैसे
रंग बिरंगे फूल सभी,
खुशबू न देखे गोरा काला
तुम देखो और मैं देखूँ ।
कान्हा का जब नाम मिला तो
मीठे बन गये कड़वे बोल,
जहां बना अमृत का प्याला
तुम देखो और मैं देखूँ,
यां जाने यह माता यशोदा
यां जाने यह नंद बाबा,
दोनों ने कैसे कान्हा पाला
तुम देखो और मैं देखूँ ।
कवि कुलवंत सिंह
टिप्पणी - श्री भगवान दास पहलवानी जी ने अपने आशिर्वाद स्वरूप यह कविता मुझे भेंट की है। उनको नमन करते हुए कविता प्रस्तुत है ।

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6 पाठकों का कहना है :
पहलवानी जी को नमन
आलोक सिंह "साहिल"
जीवन का है खेल निराला
बहुत अच्छी कविता
Sundar kavita hai, badhaayi.
वाह, अच्छी कविता है..!!
बढिया कविता..
पहलवान जी को बधाई..
इस प्यारी कविता के लिये
कवि जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद
Thanks a lot to all of you dear friends!
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