गुरु अर्जुनदेव- लघुता तें प्रभुता मिले
सिक्खों के नामी गुरु अर्जुनदेव जब पहले-पहल अखाड़े में शामिल हुए तो उनके गुरु ने उन्हें जूठे बरतन साफ़ करने का काम सौंपा। अर्जुनदेव बड़े ख़ुशी से सबके बरतन मांजने लगे। अन्य शिष्य तो गुरु जी के पास बैठकर भजन गाते और सत्संग का आनंद लेते थे, लेकिन वे बेचारे बड़े सवेरे से लेकर नित्य आधी रात तक इसी काम में लगे रहते।
उन्होंने कभी भी चाकरी के कष्ट और अपमान को मन पर नहीं आने दिया। लोग तो यही समझते थे की गुरु जी अन्य चेलों के सामने अर्जुनदेव को तुच्छ समझते हैं, इसलिए उन्होंने उसको भजन-सत्संग से दूर रखा है, लेकिन यह उनका भ्रम था।
गुरूजी आदमी पहचानना जानते थे। उनकी दृष्टी में सैकडों भजनानंदियों की अपेक्षा एक सेवक अधिक काम का था। समाधि लेने के पूर्व उन्होंने बहुत सोच-विचार कर अपने शिष्यों में से एक को अपना उत्तराधिकारी चुन लिया और बिना किसी को बताये उसीके नाम अधिकार-पत्र लिखकर रख दिया।
उनके बाद वह पत्र खोला गया। लोगों को यह देखकर आश्चर्य हुआ की गुरूजी ने उसी बरतन मांजने वाले शिष्य को गद्दी सौंपी थी। सिक्खों ने अर्जुनदेव को अपना पाचवां गुरु मान लिया।
कबीर ने ठीक कहा है:
"लघुता तें प्रभुता मिले, प्रभुता तें प्रभु दूरी।"
और गुरु नानक ने भी बड़े अनुभव की बात कही है:
"नानक नन्हे हूँ , रहो जैसी नन्ही दूब।
घास-पास सब जरि गए, दूब खूब को खूब।।"
प्रस्तुति- पाखी मिश्रा
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2 पाठकों का कहना है :
गुरु अर्जुन देव के जीवन का एक प्रेरणा से भरा हुआ प्रसंग. कभी कभी छोटे छोटे कार्यों में भी गुरु को प्रसन्न करने का तरीका छुपा होता है. सुनाने के लिए हिन्दयुग्म का शुक्रगुजार.
Sabhi ke liye shichaprad-prenaprad
prasang hai.
Badhayi.
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