स्त्री और दाढी मूँछ
आज दो बातेँ है । पहला लोककथाएँ क्यों ? तो वह सब जो हमारे इतिहास संस्कृति और भाषा का हिस्सा है वह ज़रूर हमारे बच्चों का भी उतना ही है जितना कि हमारा ।
जातक कथाएँ ,लोककथाएँ और मिथक बच्चों के लिए बहुत विस्मयकारी होती हैं ।हमें याद है ऐसी किसी कथा को किसी बडे बूढे के मुख से सुनते हुए हमारे गोल खुले मुह और चकित आँखें हो जाया करती थीं ।आज इन लोक कथाओं से शहर के मॉलों की तरफ भागते बच्चों को ये कहानियाँ देना ज़रूरी जन पड रहा है ।दूसरी बात कहानी के बाद ।सो प्रस्तुत है एक बघेली मिथकथा ---
स्त्री और दाढी मूँछ
बहुत पहले स्त्री और पुरुषों के समान रूप से दाढी और मूँछ हुआ करती थी ।शेर उस समय भी वन का राजा था शेर को अपने लडके के लिए दुल्हन की ज़रूरत थी।उसने घोषणा कराई कि जिसकी कन्या उसकी पुत्रवधू बनेगी वह इनाम पाएगा। बकरी ने सुना, उसने अपनी मालकिन से उसके गहने माँगे ताकि सुन्दर बन कर वह शेर की पुत्रवधू बन सके। उसकी मालकिन ने गहने तो क्या दिये ,अपनी धरोहर मूँछें उसे दे दीं। वह शेर की दुल्हन बनी और फिर कभी अपनी माँद में वापस नही लौटी-तभी से स्त्रियों को दाढी मूछ से छुट्टी मिल गयी ।
{प्रस्तुति :आदित्य प्रसाद सिँह,नया ज्ञानोदय ,अक्तूबर 2006}
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दूसरी बात ।इस कहानी से हमे क्या शिक्षा मिली ? सबसे पहले तो यही कि कहानी सुना कर यह अपेक्षा करना कि इसके पीछे कोई सीख होगी ही और जिसे बच्चों को बताना और समझाना ज़रूरी है ;अपने आप में एक गलत प्रवृत्ति है।कहानी खुद बहुत कुछ बोलती है ।भाषा स्वयम अपनी संरचनाओं मेँ छुपे सत्य तक पहुँ चने का रास्ता बताती है ।जब हम बडे कहानी सुना कर कोई व्यव्हारिक बुद्धि बच्चों को देना चाहते हैं तो कहानी को खत्म कर रहे होते हैं ।बच्चे की वह सहज सी जिज्ञासा –जिसमें वह कहानी के बाद हमसे कई सवाल पूछेगा जैसा कि ढेला और पत्ती पढ कर राजीव रंजन जी की बिटिया ने पूछे – उस सहज जिज्ञासा को हम कहानी का सन्देश सुना कर नष्ट कर देते हैं ।कहानी साहित्य की विधा नही रह जाती और न मनोरंजन की ही और न ही समाज व परिवेश की । बच्चे की जिज्ञासा ही कहानी को आगे बडाती है और यही जिज्ञासा बडे बडॆ सत्यों और दर्शन तक पहुँचाती है ।कहानी में बच्चा हमेशा कहता है—फिर ?- और बाद में कहता है- क्यों?
इन सवालों के उठने से पहले ही हम उनका शमन कर देते हैं ।
सो बच्चों के लिए कहानी सीख देने का ज़रिया मत बनाइए । उसे कहानी से मत उबाइए ।कहानी के जीवन और कल्पना को ,परिवेश और मिथ को उसे स्वयम डीकोड करने में मदद करिये ।
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6 पाठकों का कहना है :
सही कहा कि हम हर चीज में कुछ न कुछ “significant” डुंडते है। थोडा तो ये प्रवित्ति इस युग की देन है, जिसका कोई उद्देश्य नहीं, वो अर्थहीन लगता है, चाहे वो मानव हो, या कहानी हो, या फिर राष्ट्र हो…।
As Shakespeare wrote once (not exact line but similar )“Life is a story told by an idiot, without head and tail….all sound and glory, nothing important ”
बालपन तो आनन्दित होगा चाहे कहानी से कोई सीख मिले य न मिले…
बच्चों में स्वभाविक जिज्ञासा प्रवित्ति होती है
उसको बदावा देते रहना ही उचित है
आपका कहना सही लगा ..
कहानी केवल सीख देने के लिए नहीं होती यह सत्य है । किन्तु बच्चों को
कहानी परोसते समय कुछ तो उद्देश्य मन में होता ही है । यूँ ही कुछ भी
सुना कर यह उम्मीद करना कि बच्चे मान जायेंगें मुझे सही नहीं लगता ।
बच्चे बहुत संवेदन शील होते हैं उनकी कल्पना शीलता को तो उड़ा मिलनी
ही चाहिए साथ ही यह भी ध्यान रहे कि आज के बच्चे हर बात को यूँ ही
नहीं मान लेते । उनकी प्रतिभा को कभी भी कम ना आँकें । धन्यवाद ।
"बच्चे की जिज्ञासा ही कहानी को आगे बडाती है और यही जिज्ञासा बडे बडॆ सत्यों और दर्शन तक पहुँचाती है ।कहानी में बच्चा हमेशा कहता है—फिर ?- और बाद में कहता है- क्यों?
इन सवालों के उठने से पहले ही हम उनका शमन कर देते हैं ।"
आपका उपरोक्त वाक्यांश बच्चों के मनोविज्ञान पर आपकी गहरी समझ का परिचायक है।
उत्कृष्ट रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
मैं आपकी कुछ बातों से तो सहमत हूं किन्तु सभी बातों से नही , मानता हूं की बच्चो की कहानियाँ ज्यादा उबाउ नहीं होना चाहिया लेकिन उपदेशात्मक कथा भी रोचक बनाई जा सकती है उदारण के लिये बोद्ध-जातक कथायें जो उपदेश देते हूवे भी इतनी रोचक है की सदियों बाद भी आज तक जीवित हैं और बाल-पत्रिका चंपक को भी देखा जा सकता है जहां कथायें मनोरंजन के साथ ज्ञान भी देती है |
किन्तु आप का ये लेख एक सिख देता है की बच्चो की जिज्ञासा प्रवित्ति को बढावा देना चाहिये ईससे वो आगे चल कर समाज के विकास मे योगदान दे सकते है |
उत्तम रचना के लिये बधाई
बच्चों की जिज्ञासा को शांत करने का कहानी एक गहरा माध्यम है। कहानी एसी हो जो कल्पना को विस्तार दे और नन्हें मन को आनंदित भी करे। आपकी बात से मेरी सहमति है।
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