कोयल
कोयल
पात पुराने जब झड़ जाते,
निकल नए पत्ते तब आते,
हरी-भरी डाली के ऊपर
बैठी कोयल गाती है -
कूऊ-कूऊ-कूऊ-कूऊ-कूऊ
कोयल तन की काली है ,
पर मन की मतवाली है ,
हरे -भरे पत्तों में छिपकर
मीठे बोल सुनाती है -
कूऊ- कूऊ-कूऊ-कूऊ-कूऊ
पात पुराने जब झड़ जाते,
निकल नए पत्ते तब आते,
हरी-भरी डाली के ऊपर
बैठी कोयल गाती है -
कूऊ-कूऊ-कूऊ-कूऊ-कूऊ
कोयल तन की काली है ,
पर मन की मतवाली है ,
हरे -भरे पत्तों में छिपकर
मीठे बोल सुनाती है -
कूऊ- कूऊ-कूऊ-कूऊ-कूऊ
इस फुनगी से उस फुनगी पर
तेजी से उड़ जाती फर-फर
नक़ल करो उसकी बोली की,
तो वह सुनकर अपनी बोली है
फिर-फिर से दुहराती है
कूऊ- कूऊ-कूऊ-कूऊ-
हरिवंश राय बच्चन जी की कविता आपको कोयल की याद दिलाएगी, इसी उम्मीद के साथ,
तुम्हारी नीलम आंटी
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3 पाठकों का कहना है :
धन्यवाद नीलम जी , बच्चन जी की इतनी सुन्दर कविता के लिए | उनकी लेखनी तो अपने आप मे एक मिसाल है |
इसको आवाज भी दीजिए |
काली काली कू कू करती
जो है डाली डाली फिरती
कुछ अपनी ही धुन में ऐंठी
छुपी हरे पत्तों में बैठी
:)
नीलम जी कोयल की आवाज कानों में गूँजने लगी कविता पढकर..
कोयल की कुक बलि प्याली लगी आंटी जी...
आलोक सिंह "साहिल"
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