'देखो बच्चों'
'देखो बच्चों'
देखो, देखो, देखो बच्चों
देखो चाँद सितारों को
निरख रही हैं सभी
दिशाएँ देखो उन सब चारों को।
धरती उपजाती है अन्न
माँ हम उसको हैं कहते
सहती रहती सारे बोझे
हम सब उस पर ही रहते।
रात में चमकें चंदा तारे
चमक चांदनी आती है
दिन में फिर सूरज निकले
तो किरने भी मुस्काती हैं।
सूरज से गर्मी मिलती है
चंदा से मिलती शीतलता
गंगा का पावन जल देता
सबके मन को निर्मलता।
पत्थर से कठोर बनो ना
फूलों से सीखो कोमलता
ना करो घमंड कभी पैसे का
बेबस होती कितनी निर्धनता।
सीख-सीख अच्छी बातों को
करो सार्थक जीवन को अपने
संस्कार अच्छे हों तब ही तुम
पूरे कर पाओगे अपने सपने।
झगड़ा कभी न करो किसी से
और बुराई करना भी छोड़ो
कभी जरूरत पड़े अगर तो
कर्तव्यों से ना मुंह मोडो।
हर दिन कुछ नया सीखकर
आशाओं को जी लो तुम
फूलो से खिलकर मुस्काओ
कभी ना रहना फिर गुमसुम।
करो सार्थक यह जीवन अपना
सीखो तुम सब अपनी भूलों से
निश्छल होकर कुछ देना सीखो
धरती नदिया, और फूलों से।
शन्नो अग्रवाल

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7 पाठकों का कहना है :
बहुत सुन्दर उपदेश देती बाल रचना बधाई
प्रकृति की महिमा का सुंदर ,ज्ञानप्रद सीखों के साथ बताया है ,बधाई .
का बात है शनों जी...
मजा आ गया पढ़े के...
सच में धरती मान कितने बोझ सहती है...
आपने कितनी सरलता से कह दी इतनी गहरी बात....
आपको बधाई ..
आप सबको इस कविता को पढ़ने का धन्यबाद. एक बात कहना चाहती हूँ की जब भी मेरा लिखा प्रकाशित होता है तो पता नहीं क्यों जैसा भेजो वैसा न छपकर कहीं-कहीं पर कुछ और बदल कर छप जाता है. क्यों और कैसे यह मेरी समझ में नहीं आता? जैसे की इस कविता में इन लाइनों की यह लय भेजी थी:
सीख-सीख अच्छी बातों को
करो सार्थक जीवन को अपने
संस्कार अच्छे हों तब ही तुम
पूरे कर पाओगे अपने सपने.
पर छपने में देखिये......गड़बड़ हो गयी.
शन्नो जी ,
वाकई बड़ा अन्याय सा हो रहा है, आपकी रचनाओं के साथ ,आपको आपकी कमियाँ और प्रेषित करने में प्रेषक की गलतियां विस्तार से मेल में सूचित करूंगी ,तकलीफ के लिए एक बार फिर से माफ़ी चाहती हूँ ,हमने सुधार कर दिया है संभवतःअब शायद ..........
सीख देती हुई एक सुन्दर कविता
करो सार्थक यह जीवन अपना
सीखो तुम सब अपनी भूलों से
निश्छल होकर कुछ देना सीखो
धरती नदिया, और फूलों से।
badhiya Rachana...
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