नानी की गुलगुली
मैं तो नई नवेली हूँ
एक अभिनव पहेली हूँ
दादी के आँगन की अठखेली
और नानी की गुलगुली हूँ।
रातों को जब सब सो जाते
मैं चुपचाप उठ जाती हूँ
और अपनी शहनाई बजाकर
सबको पास बुलाती हूँ।।
पापा झटपट दूध बनाते
माँ मुझे बाँहों में झुलाती
दादी उठकर मुझे सहलाती
और लूसी पूँछ हिलाती।।
जब चन्दा मामा छुपने लगते
सूरज चाचा अंगडाई लेते
माँ की गोदी में लिपटी
मैं फिर सो जाती हूँ।।
सबके मन को गुदगुदाती
मैं नादान सबकी दुलारी हूँ
दादी के आँगन की अठखेली
और नानी की गुलगुली हूँ।।
--बेला मित्तल
कवयित्री बेला मित्तल का जन्म १९५२ में बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से वनस्पति-शास्त्र में परास्नातक एवं मुम्बई विश्वविद्यालय से बी॰एड॰ की शिक्षा प्राप्त कर १३ वर्षों तक शिक्षण कार्य। वर्तमान में सतना (मध्य प्रदेश) में अनेक सामाजिक संस्थाओं जैसे लायंश क्लब, भारत विकास परिषद् आदि में सक्रिय। जिला साक्षरता मिशन की सचिव थीं एवं इस समय जिला अन्त्योदय समिति की सदस्य। पेंटिंग में भी रुचि।
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6 पाठकों का कहना है :
सुंदर सरल कविता लिखी है आपने बेला जी
बहुत ही कोमल रचना। बधाई
सबके मन को गुदगुदाती
मैं नादान सबकी दुलारी हूँ
दादी के आँगन की अठखेली
और नानी की गुलगुली हूँ।।
bahut sundar rachna hai bela ji
बेला जी,
बड़ी वात्सल्यपूर्ण कविता लिखी है..
बधाई..
नानी की गुलगुली को भी और आपकी
कलम की कली को भी
lokjun88मासूमियत से भरी प्यारी रचना
आलोक सिंह "साहिल"
bela just now we all read your poem & were quite excited to see you on the screen. poem is lovely as like all other poems of yours.could have added one picture of Gulguli.that would have added xtra charm for the little one.
ila
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