बंदर मामा
बंदर मामा देख आइना काढ़ रहे थे बाल,
मामी बोली, छीन आइना- 'काटो यह जंजाल'.
मामी परी समझकर ख़ुद को, करने लगीं सिंगार.
मामा बोले- 'ख़ुद को छलना है बेग़म बेकार.
हुईं साठ की अब सोलह का व्यर्थ न देखो सपना'.
मामी झुंझलायीं-' बाहर हो, मुंह न दिखाओ अपना.
छीन-झपट में गिरा आइना, गया हाथ से छूट,
दोनों पछताते, कर मलते, गया आइना टूट.
गर न लडाई करते तो दोनों होते तैयार,
सैर-सपाटा कर लेते, दोनों जाकर बाज़ार.
मेल-जोल से हो जाते हैं 'सलिल' काम सब पूरे,
अगर न होगा मेल, रहेंगे सारे काम अधूरे.
-आचार्य संजीव 'सलिल'

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4 पाठकों का कहना है :
वाव! सलिल जी, आपको पहली बार देखा हिन्दयुग्म पर,बहुत खूब लिखा है,बच्चे जरुर इसे पसंद करेंगे.
आलोक सिंह "साहिल"
वाव! सलिल जी, आपको पहली बार देखा हिन्दयुग्म पर,बहुत खूब लिखा है,बच्चे जरुर इसे पसंद करेंगे.
आलोक सिंह "साहिल"
बन्दर मामा पर तो मुझे भी एक कविता याद आ गई :-
बन्दर मामा पहन पजामा
निकले बडी शान से
हाथ मे डण्डा ,सिर पर हण्डा
गाना गाते तान से
बीँच सडक पर ऐसे निकले
सब देखेँ हैरान से
छूटा डण्डा ,गिर गया हण्डा
मामा गिरे धडाम से ....:)
प्यार से मिल-जुल कर रहने का सन्देश देती आपकी कविता बहुत प्यारी लगी | बहुत्-बहुत बधाई.....सीमा सचदेव
बहुत सुंदर लिखा है आपने ...बन्दर मामा पर
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