गोवर्धन पूजा
बच्चो, 
आज आप खूब मिठाई खा रहे है और दीवाली की खुशियाँ मना रहे है न ? पूजा की तैयारी हो रही होगी ? आप को पता है न कल दीपावली का चौथा दिन है और इस दिन को गोवर्धन पूजा के नाम से जाना जाता है? गोवर्धन पूजा की कहानी सुनाने से पहले मै आपको गोवर्धन के बारे मे कुछ बताती हूँ ।
गोवर्धन एक पर्वत का नाम है जो श्री कृष्ण की पावन भूमि ब्रज के साथ लगभग २२ किलोमीटर के क्षेत्र मे फैला हुआ है। बच्चो आपने लक्ष्मण मूर्छा की कहानी तो अवश्य सुनी होगी कि रावण के साथ युद्ध करते-करते एक बार लक्ष्मण मूर्छित हो गए थे और उनको बचाने के लिए हनुमान जी संजीवनी बूटी लेने गए थे और पूरा पर्वत ही उठा लाए थे। दन्त-कथा
के अनुसार कहते है जब राम-रावण का युद्ध समाप्त हो गया और सब जब अपने-अपने घर को जा रहे थे तो उस पर्वत ने श्री राम से कहा-आपने सब कार्य अच्छे से निपटा लिए ,सब अपने-अपने घर ज रहे है पर मै कहाँ जाऊँ ? मेरा भी उद्धार करो तब श्री राम ने उसको वचन दिया था कि जब वो श्री कृष्ण रूप मे आएँगे तो उसका अवश्य उद्धार करेंगें और हनुमान जी को उस पर्वत को वृन्दावन (ब्रज क्षेत्र ) मे छोड आने को कहा श्री कृष्ण अवतार मे श्री कृष्ण जी ने उस पर्वत को अपनी तर्जनी पर उठा कर उसका उद्धार किया ।
गोवर्धन पर्वत की पूजा के साथ-साथ लोग श्रद्धा से इसकी परिक्रमा भी करते है ।
मुझे भी एक बार गोवर्धन परिक्रमा पर जाने का सुअवसर मिला था ,जब मै भी आप जैसी बच्ची थी हम लोग सपरिवार हर वर्ष श्री कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर वृन्दावन जाते और कुछ दिन वहाँ रह कर खूब घूमते-फिरते ,मस्ती करते हमारे मन मे पूरा उत्साह भरा रहता वृन्दावन मे तो हम खूब मस्ती करते लेकिन गोवर्धन कभी न गए थे ,केवल उसके लिए सुना था चूँकि हम लोग छोटे थे और किसी परेशानी से बचने के लिए मेरे मम्मी-पापा वहाँ नही जाते थे एक बार हमने खूब जिद्द की गोवर्धन-पर्वत देखने की। बच्चोँ की जिद्द के आगे शायद माँ-बाप को झुकना ही पडता है। हमारी जिद्द के आगे भी मम्मी-पापा की एक न चली और वहाँ जाने को तैयार हो गए लेकिन यह भी तय हुआ कि केवल हम वहाँ दर्शनार्थ ही जाएँगे ,परिक्रमा पर नही। हम भी खुश थे भला बच्चो को घूमने-फिरने का अवसर मिले तो और क्या चाहिए? हम निकल पडे और एक बस से गोवर्धन पहुँचे। गोवर्धन के मुख्य मन्दिर के दर्शन कर हम जब वापिस आने लगे तो संयोगवश मेरे पापा के एक मित्र मिले। वो भी सपरिवार घूमने के लिए आए थे। उनके कहने पर पापा का भी
मन बदला और चलने को तैयार हुए।-गोवर्धन परिक्रमा पर हमे तो जैसे अन्धे को दो आँखे मिलने वाली बात थी। मम्मी को चिन्ता थी तो हमारी २१-२२ किलोमीटर की पैदल यात्रा ,वो भी बिना किसी पूर्व योजना के लेकिन हम लोग इस सब से बेफिक्र मन मे उत्साह इतना कि कुछ खाने को भी मन नही माना ,यह भी लग रहा था कि अगर खाना खाने लगे तो कही परिक्रमा पर जाने के लिए मम्मी का मन बदल न जाए जितनी जल्दी निकला जाए....उतना ही अच्छा। खाना मम्मी ने साथ ही ले लिया कि रास्ते मे कही बैठ कर खाएँगे ।
खैर, थोडी ही देर मे हम नंगे पाँव बढ रहे थे - श्री गोवर्धन राज की परिक्रमा मार्ग पर जब चले तो -दोपहर का समय ,धूप सर पर थी ,सूर्य अपने पूरे जोश मे किरणे हमारे सर पर छोड रहा था। हमारे मन मे बैठा डर और गहराता जा रहा था कि कही धूप के कारण हम नही जा पाए तो......? और शायद इसी डर से या फिर बाल-स्वभाव-वश हम लोग ( कुल मिलाकर हम छ: बच्चे थे) भाग कर काफी आगे निकल जाते और आगे पेड़ की छाया मे बैठ इन्तजार करने लगते। इतने मे एक तो वापिस जाने का डर खत्म हो जाता और दूसरा हमे थोडा आराम भी मिल जाता।
अभी थोडी दूर ही पहुँचे थे कि हमारा स्वागत किया वानरों ने। जाने कहाँ से आँधी की तरह आए और खाने वाला थैला झपट कर तूफान की तरह पेड़ पर चढ । जब तक हम कुछ समझ पाते तब तक तो वानर राज हमारे भोजन को अपना भोजन बना चुके थे और हम लोग खाली पेट हँसने पर मजबूर । हम आगे निकले तो मेहरबान हुई हम पर वर्षा - देवी। इतनी तेज धूप के बाद अचानक से बादल का घिरना बहुत सुहाना । (कहते है न सावन मे बिन बादल भी बरसात हो जाती है )वैसे भी सावन के महीने मे पर्वत की तलहटी मे जहाँ पर कुदरत अपने सौन्दर्य की पूरी छटा बिखेर रहे हो , चारो तरफ हरे-भरे पेड़ लहलहा रहे हो और वहाँ पर वर्षा की बूँदा-बाँदी किसी के भी मन को रोमांचित कर ही देती है। वर्षा मे हम पूरी तरह भीग चुके थे। ऐसी सुहानी बरसात मे भीगने का यह पहला अवसर था जब हमे किसी ने भीगने से रोका नही और हमने उस मौके का भरपूर आनन्द उठाया था और करते भी क्या ?
पर्वत की छोटी-छोटी पहाडियोँ पर चरती गायें और वर्षा ऋतु मे नाचता मोर कही दूर से किसी ग्वाले की बाँसुरी की धुन पेड़ों की सनसनाहट,हवा के झोँको के साथ फैलती खुशबू जैसे हमे स्वयं कान्हा के आस-पास होने का अहसास करा रही थी कुदरत का ऐसा सुन्दर और मनमोहक रूप जहाँ हर कण कृष्णमय हो, देख कर तो हमे जैसे कोई खजाना ही मिल गया हो। तन पर भीगे कपडे पहने हम लोग बढते जा रहे थे। परिक्रमा मार्ग पर कभी उस सन्नाटे को चीरती पीछे से श्री कृष्ण नाम की ध्वनि सुनाई देती तो दूसरे ही क्षण उस के जवाब मे कही दूसरी तरफ से और जोश से श्री कृष्ण की जय-जयकार से वातावरण गूँज उठता। कभी हम अपनी प्रतिध्वनि सुनने के लिए एक दूसरे को जोर से आवाज लगाते। वर्षा थम चुकी थी और हमारे पेट मे शुरु हो गया था-चूहोँ का नर्तन। भूख थी कि बढती जा रही थी। चलते-चलते हम एक गाँव मे पहुँचे। गाँव बहुत छोटा था लेकिन शायद उस दिन कोई विशेष दिन था जो गाँव वाले मिलकर परिक्रमा मार्ग पर खूब पकवान बना लंगर लगा रहे थे। हम लोग भूखे तो थे लेकिन जाने मे झिझक रहे थे। गाँव वालो के बुलाने पर हम बिना कुछ सोचे भूखे शेरो की तरह टूट पडे खाने । भर-पेट खाना खाया और जाते-जाते न जाने गाँव वालो के मन मे क्या आया कि हमे साथ मे भी खाना दे दिया। थोडी और आगे जाने पर हम वहाँ पहुँचे जहाँ श्री गिरिराज जी की जीभ है। कहते है यही पर गिरिराज ने प्रकट होकर ब्रजवासियोँ का भोजन ग्रहण किया था। हमने वहाँ चाय पी और फिर आगे की यात्रा पर निकल पडे और एक परिक्रमा पूरी कर हम तैयार थे दूसरी परिक्रमा पर। ( गिरिराज की दो परिक्रमा है और कुल मिला कर लगभग २२ कि.मी., मुख्य रूप से दो कुण्ड है श्री कृष्ण कुण्ड और श्री राध कुण्ड ,जिसके इर्द-गिर्द परिक्रमा मार्ग है ) अब तक हमे कोई थकावट न महसूस हुई इतना जोश हममे कहाँ से आया कि हम बिना थके आगे बढते जा रहे थे। शायद इसे बचपन का जोश कहते है अब तक हमारी थकावट
पर हमारा जोश भारी था हमारे गीले कपडे अब तक सूख चुके थे रास्ते मे हम ने कुछ ऐसे लोगो को भी देखा जो लेट कर परिक्रमा कर रहे थे वो एक बार लेटते ,श्री कृष्ण की जय बोलते ,लेट कर पत्थर से आगे निशान लगाते ,फिर खडे होते और यही क्रम बार-बार दोहरा कर उन्होने पूरी परिक्रमा करनी थी हम उन की श्रधा के आगे नतमस्तक थे मार्ग मे हमने बहुत सारे छोटे-छोटे मन्दिर भी देखे और एक महात्मा जी को भी देखा जो एक ही पैर पर खडे भक्ति मे लीन थे उनके पैर अत्याधिक सूज चुके थे जैसे-जैसे हम आगे बढते गए हमारे उत्साह पर थकावट भारी पडने लगी अभी तक हम लगभग १५ कि.मी. चल चुके थे और अभी ६-७ कि.मी. का रास्ता और तय करना था साथ-साथ मे हम कही-कही बैठ कर थोडी देर आराम करते और फिर आगे चल पडते। शाम ढलती जा रही थी अन्धेरा गहराता जा रहा था आकाश मे तारे चमकने लगे थे और चाँद अपनी चाँदनी बिखेरने लगा था सुनसान मार्ग पर चलते-चलते हम लोग डर भी रहे थे लेकिन परिक्रमा मार्ग पर और भी बहुत से लोग हमारे आगे-पीछे है यह सोच कर चलते जा रहे थे। हाँ अब हमे-मम्मी-पापा ने अकेले आगे निकलने से मना कर दिया था और अपने ही साथ रहने को कहा वैसे भी अब तक तो हमारी सारी हिम्मत जवाब दे चुकी थी ,बस किसी तरह से रास्ता नापना था न जाने हम कैसे चल रहे थे हम सब के पैरो मे छाले पड़ चुके थे अपना ही पैर उठाने मे लगता था मनो भार जैसेउठा कर रख रहे । किसी तरह रात के लगभग साढे दस बजे तक हमने श्री गोवर्धन जी की परिक्रमा पूरी कर ली और मानसी गन्गा (जिसको गन्गमा भी कहते है )पर पहुँचे ,हाथ-मुँह धोया और एक धर्मशाला मे रात काटने के लिए गए गए क्या जाते ही औन्धे मुँह ऐसे गिरे कि सोए-सोए ही मम्मी ने खाना खिलाया और अगले दिन कोई दस बजे तक बिना हिले-डुले सोए ही रहे जब सो कर उठे तो बहुत तरो-ताज़ा लगा इस थोडी सी मुश्किल किन्तु बहुत सुहानी सी पैदल यात्रा को लगभग १७-१८ वर्ष बीत चुके है लेकिन उसकी याद अभी तक दिलो-दिमाग मे तरो-ताज़ा है
गोवर्धन पूजा की कहानी मै आपको कल सुनाऊँगी कि इसको क्योँ पूजा जाता है आज आप सबको दीवाली की मङ्गल-कामनाएँ

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4 पाठकों का कहना है :
दीपावली के इस शुभ अवसर पर आप और आपके परिवार को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.
seema ji itni rochak prastuti ,bahut achchaa varnan hai ,bus aisi hi pyaar bhari baarish hoti rahe is baal udyaan par .
सीमा जी बहुत अच्छी जानकारी दी है आपने
बाल सुलभ संस्मरण और इसी बहाने आपने महत्वपूर्ण जानकारी भी दे दी। साधुवाद
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