Saturday, September 29, 2007

मौसम बारिश का

प्यारे बच्चो,

हर महीने के अंतिम दो-तीन दिनों में हमारा प्रयास है आपकी रचनाओं को भी हिन्द-युग्म के इस मंच पर जगह दी जाय ताकि आपकी रचानात्मकता भी निख़र कर बाहर आ सके। यदि आप भी लिखते हैं तो शर्माना छोड़िये और अपनी रचनाएँ, परिचय व फोटो सहित bu.hindyugm@gmail.com पर भेजिए। बच्चो, इसी कड़ी में आज आपके समक्ष औरंगाबाद, महाराष्ट्र के अथर्व चांदॉरकर अपनी रचना "मौसम बारिश का" लेकर आये हैं। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है -



-: नाम :-
अथर्व चांदॉरकर

-: कक्षा :-
नवीं

-: विद्यालय :-
एस. बी. ओ. ए. पब्लिक स्कूल

-: शहर :-
औरंगाबाद, महाराष्ट्र





मौसम बारिश का

बारिश का आना मानो बचपन की यादें सताना.....
वह पहली बारिश में कूदना-फिसलना
काग़ज़ की कश्तियाँ पानी में छोड़ना
पानी और कीचड़ में लड़ना-झगड़ना
रोना, हँसना... हँसना फिर रोना........

कड़कती बिजलियों से डरकर गिरना
गिरकर संभलना व बारिश में भीगना
बीमार होना, सबकी डाँट खाना
स्कूल से छुटटी लेना वह
अंदर ही अंदर गरम रजाई का आनंद भी लेना..........

पेड़ों पे चढ़ना व हरियाली को छूना
था वही मौसम बारिश का सुहाना
यादों के सावन का रिमझिम बरसना
मीठी बूंदों में नमी का घुल जाना
बारिश का आना मानो बचपन की यादें सताना.......


- अथर्व चांदॉरकर


Friday, September 28, 2007

चुपके से बतलाना

बच्चो, 2 अक्टूबर को हमारे राष्ट्रपिता गांधी जी का जन्म दिवस है। प्यार से लोग उन्हें बापू भी कहते हैं। उन्होंने अहिंसा के सिद्धान्त के द्वारा देश के लोगों को एकता के सूत्र में बांधने और हमारे देश को आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज प्रस्तुत है उन्हीं को सम्बोधित एक बाल गीत। आशा है आपको यह रचना पसंद आएगी।


बाल गीत
बापू तुम्हें कहूं मैं बाबा, या फिर बोलूं नाना?
सपनों में आ कर के मेरे चुपके से बतलाना।।



छड़ी हाथ में लेकरके तुम, सदा साथ क्यों चलते?
दांत आपके कहां गये, क्यों धोती एक पहनते?
हमें बताओ आखिर कैसे, तुम खाते थे खाना?
सपनों में आ कर के मेरे चुपके से बतलाना।।


टीचर कहते हैं तुमने भारत आज़ाद कराया।
एक छड़ी से तुमने था दुश्मन मार भगाया।
कैसे ये हो गया अजूबा मुझे जरा समझाना।
सपनों में आ कर के मेरे चुपके से बतलाना।।


भोला–भाला सा मैं बालक, अक्ल मेरी है थोड़ी।
कह देता हूं बात वही जो, आती याद निगोड़ी।
लग जाए गर बात बुरी तो रूठ नहीं तुम जाना।
सपनों में आ कर के मेरे चुपके से बतलाना।।


Thursday, September 27, 2007

खिलौने वाला

सोनू आओ मोनू आओ
रिंकी पिंकी तुम भी आओ
बंदर, भालू, हाथी लाया
देखो खिलौने वाला आया

लाया है संसार वो
खिलौने के अम्बार वो
नीला, पीला लाल- गुलाबी
गुडिया हँसती, लगते चाबी

चिड़िया कहती चूँ-चूँ-चूँ
मेंढक कहता टर- टर- टर्र
भालू गाना गाता है
हाथी नाच दिखाता है

गाँधी जी के बंदर तीन
कहते है अपना संदेश
प्यारे बच्चो, बुरा न कहना
बुरा न देखो, बुरा न सुनना
और कभी अन्याय न सहना


चतुर लोमडी बोल पडी
जीवन पथ पर चलना तुम
आगे- ही – आगे बढना
आ जाए कोई मुश्किल
चतुराई से हल करना


रचना सागर
26.09.2007


Tuesday, September 25, 2007

रूपाली साल्वे की एक कविता

प्यारे बच्चो,

लगता है आज गौरवजी किसी कार्य में व्यस्त हो गये हैं, मगर इसका मतलब यह कदापि नहीं आज बाल-उद्यान में आपके लिये कुछ भी नहीं है, हमारा प्रयास है आपकी रचनाओं को भी हिन्द-युग्म के इस मंच पर जगह दी जाय ताकि आपकी रचानात्मकता भी निख़र कर बाहर आ सके। यदि आप भी लिखते हैं तो शर्माना छोड़िये और अपनी रचनाएँ, परिचय व फोटो सहित bu.hindyugm@gmail.com पर भेजिए। बच्चो, इसी कड़ी में आज आपके समक्ष औरंगाबाद, महाराष्ट्र की छात्रा रूपाली साल्वे अपनी रचना लेकर बाल-उद्यान में उपस्थित हैं। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है -

नाम :- रूपाली साल्वे
विद्यालय :- एस. बी. ओ. ए. पब्लिक स्कूल
शहर :- औरंगाबाद, महाराष्ट्र

पहले...

दूर थे फिर भी पास थे तुम
जाने क्यूँ बहक से गये तुम
था हमें तुम्हारा इंतज़ार
क्या तुम्हे नहीं था हमसे प्यार?

अब...

तुम हो तो हम नहीं
बिछड़े बंधू के लिये दु:ख भी नहीं
अब तो सिर्फ़ कांटे हैं
जो तुमने हमें बाँटे हैं


क्यों ऐसा निर्णय लिया
हिंसा को यूँ ही अपना लिया...!
न शहर को छोड़ा न यार को
भूल गये अपनों के प्यार को

छोड़ दो यह हिंसा
बन जाओ इंसान
पहचानों अपने देश को
पहन लो दया-प्रेम की पौशाक को

तुम बदल जाओ यही आस है
धरती माँ तो तुम्हारे ही पास है
अपनी मिट्टी को जानो यार
सभी करेंगे तुमसे प्यार...


- रूपाली साल्वे


Monday, September 24, 2007

एक चिडिया

मित्रो , वेसे तो मैं अपनी कविता ही पोस्ट करना चाहता था किन्तु मुझे कुछ ऐसा मिल गया जिसने मुझको बचपन के गलियारों मे जाने को मजबुर कर दिया ये यू-ट्यूब की एक लिंक है जो शायद आपकी भी बचपन की यादों को ताजा कर देगी |

निम्न विडियो को देखिए और यादों मे खो जाइये , मुझे उम्मीद है ये आपको ये पसंद आयेगा |



एक चिडिया


Saturday, September 22, 2007

माँ के लिए रोटियाँ




माँ, तुम रोज़ बनाती हो
आज ज़रा मैं भी बनाऊँ,
गोल-गोल रोटियाँ बेल दूँ
और पका कर तुम्हें खिलाऊँ
:-)



- सीमा कुमार


Friday, September 21, 2007

बच्चों के लिए बीईई लाया है लाखों के ईनाम

बच्चो,

आपमें कौन है जो चित्रकारी नहीं कर सकता? हर बच्चा एक अच्छा चित्रकार होता है। बस अब मौका आ गया है कि आप अपना हुनर दिखा सकें। जानते हैं न आप कि आज ऊर्जा-संरक्षण कितना महत्वपूर्ण हो गया है। आपको अपने देश के लोगों को अपने चित्र के ज़रिए ऊर्जा-संरक्षण का पाठ पढ़ाना है।

पूरा विवरण देखने के लिए नीचे के चित्र पर क्लिक कीजिए।

बच्चो,

इस प्रतियोगिता में भाग ज़रूर लेना। हिन्द-युग्म की शुभकामनाएँ आप सभी के साथ हैं।

(वैसे हर स्कूल को इसकी सूचना होगी। यदि आप अध्यापक है और आपके स्कूल में इसकी सूचना नहीं है तो कृपया इसकी सूचना हर एक बच्चे व प्रबंधन को दें


Thursday, September 20, 2007

अनिकेत चौधरी को जवाब चाहिये

***********************
-: नाम :-
अनिकेत चौधरी

-: विद्यालय :-
एस.बी.ओ.ए. पब्लिक स्कूल

-: शहर :-
औरंगाबाद, महाराष्ट्र
***********************

बाल रचनाओं में आज पढ़िये, औरंगाबाद (महाराष्ट्र) के एस.बी.ओ.ए. पब्लिक स्कूल के एक छात्र अनिकेत चौधरी की रचना -

हिन्दी का नाम सुनते ही मुझे विभाजन की याद आती है, जब हम दोस्त हिन्दी और संस्कृत के नाम पर एक-दूसरे से बिछड़ गये थे। दोनों बहनों ने हमें बड़ा सताया। हम एक-दूसरे से जब भी मिलते थे, आपबीती सुनाते थे। संस्कृत कक्षा में बैठे साथी भी संस्कृत को बंद कमरे की घुटन कहकर हमसे हिन्दी में बात तो करते थे पर हमें भी अफ़सोस था कि हम संस्कृत में उनसे बात नहीं कर पाते थे। एक दिन मैं सो गया था। अचानक हिन्दी ने दस्तक दी... "उठो! उठो! आँखें खोलो!"

आँखें मलते-मलते मैं बैठ गया। पूछा क्या बात है? क्यों शौर मचा रही हो?

कहने लगी अगर हर कोई अपनी गलती खुद पकड़ ले तो कितना अच्छा! मैने कहा, मैं नहीं समझा तो कहने लगी -

"जल-प्रदूषण, ध्वनी-प्रदूषण, वायू-प्रदूषण की तरह हिन्दी-प्रदूषण भी फैल रहा है... शुद्धता रही नहीं "

मैने पूछा – "वो कैसे?"

उसने कहा – "जिम्मेदार है संविधान, नेता, फिल्म निर्माता, गैर-जिम्मेदार नागरिक"... मैंने कहा बस-बस...चुप...कोई सुन लेगा...तेरी जगह अंग्रेजी ले लेगी...बड़ी ही दुखी थी...वही राग अलापने लगी...है तो सौतन...घर छूटा पर उसने छोड़ी नहीं अपनी जमीन...शायद महसूसती है वह घर से बेघर होने की पीड़ा...और आदमी? यही तो फर्क है उसमें और यहाँ के लोगों में...

कुछ समझ न पाया, उसकी व्यथा सुनते-सुनते थक गया और विश्व सम्मेलन में भी सुनाना चाहा पर...पहले आपको सुना दूँ गर जवाब मिल जाये तो रात में उसे भी संतुष्ट करूँगा। वो सचमुच दुखी है... उसे क्या कहूँ?



- अनिकेत चौधरी


Wednesday, September 19, 2007

खुद जियो और को भी जीने दो...

अजरबेल और अमरबेल दो भाई थे। अपने स्वभाव के बिलकुल विपरीत होने के बाद भी एक दूसरे से अपने मन की बात कह लिया करते। उस रात चन्दामामा इतनी तेज चमक रहे थे कि दोनों को नींद नहीं आ रही थी। इतने खुले में उगने का हमें कितना नुकसान है, अमरबेल नें अजरबेल से कहा। बहुत सी शाख वाले किसी पेड के नीचे उगे होते तो चंदा मामा अपनी टोर्च जैसी रोशनी से हमारी नींद न खराब करते, बल्कि वहाँ उनकी रोशनी जीरो पावर बल्ब जितनी ही होती। अजरबेल इस बात पर मुस्कुराने लगा, बोला “जरा गौर से देखो, आज चंदामामा कितने हैंडसम लग रहे हैं, आज पूर्णिमा है”। अजरबेल की बात सुन कर अमरबेल नें बुरा सा मुँह बना लिया।

अजरबेल छोटे-छोटे हरे पत्ते वाली बहुत सुन्दर सी लता था। वह पौधों से दोस्ती करने में बहुत माहिर भी था। उसपर उगने वाले पीले-पीले फूल पौधों को अपनी ओर आकर्षित करते और वह भी अपने स्प्रिंग जैसे घुमावदार हाँथों को पौधों की ओर बढा उनका अभिवादन स्वीकार करता। कई कटीले पौधों नें अपनी बदसूरती छुपाने के लिये अजरबेल से कहा था कि वह उन्हे छुपा ले, और खुशी खुशी अजरबेल उनसे लिपट गया। इस तरह उसे सूरज की रोशनी पाने में सुविधा भी हो जाती और पेड-पौधों का प्यार भी मिलता। ठूंठ बाबा तो अजरबेल से बेइंतिहाँ प्यार करते थे। वो जानते थे कि उनका आखिरी समय आ गया है, लेकिन अजरबेल उनसे इस तरह जा लिपटा कि उनका सारा अकेलापन काफुर हो गया।


अमरबेल इतना मिलनसार न था। वह हमेशा गुस्से में रहता। यही कारण था कि सभी पौधे उससे दूर-दूर रहते। ले दे कर एक बीमार पौधे में वह अपने आप को किसी तरह लपेटे चिडचिडाता रहा करता। अजरबेल हमेशा उसे समझाता कि बात बात पर गुस्सा होना अच्छी बात नहीं। मुस्कुराहट तुम्हारा कुछ नहीं लेगी बल्कि तुमपर इतने सुन्दर सुन्दर फूल खिला देगी कि तुम सबके प्यारे हो जाओगे। यह कह कर अजरबेल जब भी मुस्कुराता तो बहुत से पीले-पीले फूल खिल उठते और आस-पास से रंग-बिरंगी तितलिया उसकी ओर दौडी आतीं। यह देख कर अमरबेल हँस पडता, भाई तुमने तो खुद को अजायबघर बना लिया है। जब देखों तुम तितलियों, मधुमक्खियों और परिंदों से घिरे रहते हो, जब इनमें से कोई नहीं होता तो वह बूढा ठूंठ तुम्हें कहानियाँ सुनाता रहता है...मैं आजाद ख्याली हूँ।
यह दुनियाँ बहुत खूबसूरत है, यहाँ सूरज है जो रोशनी देता है, चंदा है जो अपनी चाँदनी लुटाते हैं, तारे हैं जो सपने बाँटते हैं, नदियाँ है जो अपना शीतल जल और कलकल का गीत बाँटती हैं..लेकिन अमरबेल केवल लेने में यकीन रखता था। वह सूरज से अपना भोजन बनाने के लिये रोशनी लेता और शरीर के लिये दूसरे आवश्यक तत्व बीमार पेड की आँख चुरा कर उससे ही ले लेता। अमरबेल का इससे पेट तो भर जाता किंतु बीमार पौधा और बीमार होता जा रहा था। एक रोज बीमार पौधे की तबीयत बहुत बिगड गयी। वह केवल आँखे बंद कर लेटा ही था कि उसने देखा कि अमर बेल नें अपनें गोलगोल हाँथ बढा कर चुपके से उसका बनाया खाना चूस लिया। पौधा बहुत दुखी हुआ। उसने अमर बेल से तो कुछ नहीं कहा किंतु यह बात अजरबेल को बता दी।

अजरबेल नें अपनी नाराजगी जाहिर करने में देरी नहीं लगायी।

“यह तुम्हारी ज्यादती है और कामचोरी भी” अजरबेल नें जोर देकर अमरबेल से कहा। “तुम्हे अपना भोजन स्वयं बनाना चाहिये, दूसरों पर निर्भर रहने वाले एक दिन नष्ट हो जाते हैं”।

“क्या तुम दूसरों पर निर्भर नहीं हो?” अमरबेल अपनी खीज छिपा नहीं सका। चोरी पकडे जाने के बाद वह सीनाजोरी पर उतर आया।

“हाँ मैं भी दूसरे पौधों और पेड की शाखाओं पर निर्भर हूँ, लेकिन मैं उनका भोजन नहीं चुराता। बल्कि मेरे फूल उनका आकर्षण बढाते हैं जिसके कारण तितलियाँ और दूसरे दोस्त खिंचे चले आते हैं।” अजरबेल ने कहा। अमरबेल यह सुन कर मुस्कुराने लगा।

बगल में ही बहुत से फूलों से लदा पौधा खडा था, जिसका नाम कनेर था। इस पर खिले पीले-पीले, सुन्दर-सुन्दर फूल बगीचे का सौन्दर्य बढा रहे थे। लेकिन कनेर हमेशा ही दुखी रहा करता। जो भी बाग घूमने आता वह गुलाब की क्यारियों में ही खो जाता। कोई उसकी ओर ध्यान भी नहीं देता था कि उसकी डालियों में गुलाब से ज्यादा फूल होते हैं और सबसे बडी बात कि उसमें काँटे भी नहीं हैं। उसने अजरबेल को डाँट दिया “बगीचे में सब लोग तुम्हें चाहते हैं, इसका मतलब यह नहीं कि तुम कुछ भी कह सकते हो”

अमरबेल इस समय, इस सहानुभूति को पा कर बहुत प्रसन्न हुआ। अजरबेल नें अब चुप रहना ही बेहतर समझा। अब कनेर के पौधे और अमरबेल में गहरी मित्रता हो गयी। एक रोज कनेर ने अमरबेल के लिये अपनी शाखें फैला दीं और खुशी-खुशी अमरबेल उससे लिपट गया। बूढे ठूठ नें अजरबेल से कहा “विनाश काले विपरीत बुद्धि – यानी कि जब विनाश का समय आता है तो बुद्धि काम करना बंद कर देती है”।

इसी तरह समय बीतने लगे। यह फूलों का मौसम था, गुलाब खूब खिले थे और अपनी खुशबू से पूरा बागीचा खुशनुमा किये हुए थे। गुलाब की अपना सबकुछ लुटा देने की विशेषता के लिये ही तो सब उससे प्यार करते हैं। काश मन में द्वेष पालनें की जगह यह बात कनेर पहले समझ पाता। इस मौसम हमेशा फूलों से लदे रहने वाले कनेर में इक्का-दुक्का ही फूल थे। कनेर भी बीमार नजर आ रहा था। अजरबेल नें ढूंठ बाबा से पूछा कि अचानक यह क्या हुआ? क्या कनेर बीमार हो गया है?

ठूंठ बाबा भी दुखी थे लेकिन चाह कर भी कनेर की मदद नहीं कर सकते थे। बोले “अमरबेल नें दोस्ती की पीठ में छुरा भोंक दिया है। कनेर का बनाया भोजन वह चूस लेता है, यही कारण है कि कनेर धीरे धीरे बीमार और पीला होता जा रहा है”


“ यह तो गलत बात है”
“हमेशा अच्छे दोस्त ही बनाने चाहिये। दोस्त जीवन पर गहरा प्रभाव डालते हैं। अगर आपके दोस्त अच्छे नहीं हुए तो आपकी हालत भी कनेर की तरह हो सकती है”। ठूंठ बाबा नें अजरबेल को समझाते हुए कहा।
“क्या अमर बेल इसी तरह मनमानी करता रहेगा” अजरबेल नें दुखी हो कर पूछा।
“नहीं, बुरे काम का हमेशा बुरा नतीजा होता है” ठूंठ बाबा नें बताया।

और सचमुच यही हुआ। कनेर धीरे धीरे सूखने लगा और एक दिन बिना पत्तियों और फूल का ढाँचा ही रह गया। अमरबेल हरा भरा हो गया था। कनेर के पास अब अमरबेल की आवश्यकताओं जितना भोजन नहीं था। उसे भोजन बनाना भी नहीं आता था। आसपास के पौधों नें भी अपनी शाखायें समेट ली थीं और अब अमर बेल का कोई भी दोस्त नहीं था। अमरबेल धीरे धीरे कमजोर पडने लगा। उसका रंग पीला पडने लगा....उस रोज जब बाग का माली आया तो उसने कनेर के उस पौधे को काट दिया जिस पर अमरबेल लदा हुआ था।

“क्या इस बात से तुमने कुछ सीखा” ठूंठ बाबा नें अजरबेल से पूछा? अजरबेल नें बहुत गहरी साँस ले कर कुछ कहना चाहा कि तितलियों नें टोक दिया। “बाबा आप भी बच्चों को कितना भाषण देते हो, सुनों माली के रेडियो पर कितना सुन्दर गीत बज रहा है....”

बगीचे में गीत गूंज रहा था “खुद जियो, और को भी जीने दो.....

*** राजीव रंजन प्रसाद
19.09.2007


Tuesday, September 18, 2007

फ़िर से आई दीदी की पाती ...नई मजेदार बात सुनाती :)

दीदी की पाती


कैसे हैं आप सब ?.
इस बार दीदी की पाती आपके लिए ले के आई है और नयी रोचक जानकारी
आप के पास साईकिल है ना ? ख़ूब चलाते होंगे आप..कितना मज़ा आता है
इसको चलाते हुए जब यह हवा से बातें करती है .बहुत अच्छा लगता है न..पर कभी आपने
सोचा है की यह साईकिल बनाई किसने ? चलो आज आपको इसके बनाने की मज़ेदार
कहानी सुनाते हैं ..

फ़्राँसे में मोशिए दे सिवरांक नाम का एक बालक था उसको चार पहियों वाला
घोड़े का खिलौना बहुत पसंद था,,उस दिन उसका जन्म दिन था उसके पापा ने उसको
शाम को एक डिब्बा दिया उसने झटपट उसको खोला तो वही घोड़े का खिलौना निकाला
उस में चार पहिए लगे थे वह इसको पा कर इतना ख़ुश हुआ की जैसे उसके अपने
पैरों में मानो पहिए लग गये हो

कुछ ही दिनों में वह घोड़ा उसका सबसे प्यारा खिलोना बन गया वो उसके साथ तरह तरह के खेल खेलता और अपनी कल्पना में ही उस में बैठ के सवारी करता लेकिन वह घोड़ा इतना छोटा था की वो उस पर बैठ नही सकता था

जब उसके पापा ने उस को इस तरह उसको उस खिलौने के साथ खुश देखा तो उन्होने सोचा की
वो उसको एक ऐसा लकड़ी का घोड़ा बना के देंगे जिस पर वो बैठ भी सके और एक दिन उन्होने उस को लकड़ी का घोड़ा बनवा के दिया उसको देख के तो मोशिये खुशी से झूम उठा और उस पर बैठ के उस के लगे पहियों के सहारे लुढकने लगा उस को यह खेल बहुत मजेदार लगा

अब मोशिए धीरे धीरे बड़ा होने लगा, वो उस खिलौने से खेलने की उम्र पार कर चुका था पर वह बड़ा हो कर भी अक्सर सोचता की कोई ऐसी सवारी बने जो घोड़े जैसी हो क्यों कि वो अब उस घोड़े की सवारी का मज़ा नही भुला था

आख़िर एक दिन मोशिए का यह सपना सच हो गया उसने उस घोड़े के खिलौने के आधार पर ही एक सवारी बनाई उस में केवल दो पहिए लगाए उस पर लकड़ी की एक सीट बनाई और अपने
पैरों से उसको लुढकाता हुआ चल पड़ा जिसने भी देखा उसका दिल किया उस पर बैठने का !


कुछ ही दिनों में यह लोगो के मनोरंजन का खेल बन गयी इसका नाम रखा गया "वेलासिफे रोज" कुछ दिनों में यह कई वैज्ञानिकों की नज़र में आई जर्मन इंजीनियर '"बेनवान ड्रेस "'ने मोशिए के खिलोने के आधार पर एक ऐसी मशीन बनाई जिस में दो पहिए थे ,यह पहिए आज कल की साईकिल के बराबर थे डंडे पर एक छोटी सी गद्दी लगी थी यही साईकिल का पहला शुरूआती रूप था

चालीस साल बाद इंग्लेंड के मैकमिलन नामक एक लुहार ने" ड्रेस "जैसी साईकिल बनाई पर उस में उसने पैडल लगाए इन पैडल को डंडे के सहारे पिछले चाके के धुरे[पहिए] से मिला दिया ,इन्हे पैरों से चलना पड़ता इस साईकिल का अगला पहिया छोटा था और पीछे का बड़ा ,इस में बैठने के लिए एक गद्दी लगी थी



फिर धीरे धीरे साईकिल के सभी पुरजों में सुधार होता गया "रुशो "नामक एक आदमी ने इस में पतले पतले स्पोक यानी सलाइयां भी लगाई सबसे अधिक सुधार किया इस में ''जे. बी .डनलप"' ने उन्होने इसमें हवा वाले पहिए लगाए

..अब तो कई तरह की साईकिल बनने लगी सर्कस की साईकिल ..रेस की साईकिल , मोटर साइकल आदि आदि

आज तो साईकिल सब जगह है क्या गांव ,क्या शहर यह सब जगह आसानी से चल जाती है बहुत से साहसी लोग तो इस पर पूरी दुनिया घूमने भी निकल पड़ते हैं

लेकिन आज की साईकिल देख के भला कौन सोच सकता है की यह एक बच्चे की खिलौने की कल्पना का फल है ..यदि उसने ना सोचा होता तो साईकिल इतनी जल्दी ना बनती ..है तो यह थी साईकिल बनने की मजेदार कहानी :) सोचो सोचो !!आप भी कुछ सोचो ,क्या पता कल आप भी मोशिए की तरह तरह कोई नया आविष्कार करें .और वह आविष्कार आपको महान बना दे


और इस पाती से शुरू करेंगे हम एक नई रोचक जानकारी :)...क्या आप जानते हैं की संसार की सबसे छोटी मोटर साइकिल किसने बनायी ,,? वो थे क्लाइव विलियम और साइमन टिम्परले यह दोनों इंजीन्यर थे इस मोटर साइकिल की सीट १०.१९ सेंटीमीटर और सीट के साथ ऊंचाई ४९ सेंटीमीटर है इसकी विशेष बात यह है की इस को बडे और बच्चे दोनों चला सकते हैं ..है न मजेदार बात :)




चलो अब चलती हूँ लेकिन अपनी दीदी को बताना ना भूलना की यह जानकारी आपको कैसी लगी
फिर मिलूंगी आपसे अपनी अगली पाती में एक और नयी रोचक जानकारी के साथ
बस आप इंतज़ार करें मेरी अगली पाती का और ध्यान रखें अपना ..अच्छा पढें और ऊँचा सोचें:)

बहुत बहुत शुभकामना और ढेर सारे प्यार के साथ आपकी दीदी
रंजना[ रंजू ]


Monday, September 17, 2007

गधा-तम्बाकू सम्वाद

हरा-भरा सा खेत देखकर
रुक गए गर्दभ राज
खुशी खेलने लगी खुरों पर
बजा उदर में साज
भैया ख़ूब खाऊंगा आज



बढ़ने लगे उस ओर खेत के
जिधर अधिक हरियाली
खुशी और बढ़ गई गधे की
नहीं था कोई माली
भैया करने को रखवाली



खुशी से ढैंचू-ढैंचू करता
पहुँचा खेत के पास
तम्बाकू का खेत देखकर
गर्दभ हुआ उदास
भैया उड़ गए होश-हवास


तम्बाकू ने कहा गधे से
क्या हुआ गर्दभ सेठ ?
तुमको इतनी भूख लगी है
क्यों नहीं भरते पेट ?
भइया मारो खाकर लेट ?


बोला गधा तम्बाकू से
क्यों मोल लूँ मैं कैंसर
बेशक गधा कहते मगर
इस बात की मुझको ख़बर
बीमारियों के तुम हो घर


बोला तम्बाकू देख जाकर
स्वागत में सम्मान में
मैं मिलुँगा हर जगह
बीडी सिगरेट पान में
हर छोटी बड़ी दुकान में


बोला गधा अज्ञान हैं वो
जो चढाते तुझको सर
जूते पड़ेंगे देख जाकर
मन्दिर मस्जिद गिरजाघर
जरा गुरुद्वारे में कदम तो धर




जो भी तेरी फितरत से
और परिचित होंगे बात से
कोसों दूर रहेंगे तुझसे
छुयेंगे भी नहीं हाथ से
बस खडा रह औकात से




- राघव


Saturday, September 15, 2007

आओ बच्चो हम चित्र बनाना सीखें

बच्चो ! पिछले अंक में हमने सीखा था कि चिडिया का चित्र कैसे बनाया
जा सकता है I इस बार हम बिल्ली का चित्र बनाना सीखेंगे I
सबसे पहले हम एक आधा गोला बनायेंगे जैसा कि नीचे दिखाया गया है

फ़िर उसके एक ओर हम एक छोटा सा गोला बनायेंगे जो बिल्ली का सिर
बनेगा I

रेखाओं में थोडा फ़र्क रहे और नई रखायें आसानी से पहचानी जा सकें
इसलिये बिल्ली का आगे का पैर और पूंछ हरे रंग और पिछ्ला पैर लाल
रंग से दिखाया गया है I

इसी तरह बिल्ली का मूंह, आंख, गर्दन और कान नीले रंग से दिखाये गये हैं I

काली रेखाओं में हमारा चित्र कुछ ऐसा दिखाई देगा I

नीचे चित्र में जो रेखायें लाल रंग से दिखाई गई हैं उनको रबर से मिटा दें I

अब चित्र ऐसा नजर आयेगा I बस अब रंग भरना बाकी है I अपना मन
पसन्द रंग भरें और सब को चकित कर दें I

मटियाले रंग में बिल्ली ऐसी लगेगी I

आज के लिये बस इतना I अगले अंक में हम एक और चित्र
बनाना सीखेंगे I तब तक के लिये विदा, फ़िर मिलेंगे I

साभार : विलीवियरफ़ारकिड्सडाटकाम


Friday, September 14, 2007

नई कहानी


अब्बक – डब्बक टम्मक – टूं नाचे गु‍डिया रानी।
आसमान में छेद हो गया, बरसे झम–झम पानी।
आओ लल्लू, आओ पलल्लू, सुन लो नई कहानी।।

थोड़ा सा हम शोर मचाएं, थोड़ा हल्ला – गुल्ला।
हम चाहे तो लड्डू खाएं, हम चाहे रसगुल्ला।

लेकिन ध्यान रहे न ज़्यादा, हो जाए शैतानी।
आओ लल्लू, आओ पलल्लू, सुन लो नई कहानी।।

हम चाहें तो चंदा पर जाकर झंडा फहराएं।
हम चाहें तो शेरों के भी दांतों को गिन आएं।

हूई बात पूरी वो, जो है मन में हमने ठानी।
आओ लल्लू, आओ पलल्लू, सुन लो नई कहानी।।

परी कहां अब दुनिया में हैं कम्प्यूटर की बातें।
दिन बीतें धरती पर अपने, और चंदा पर रातें।

हम राजा, हम रानी, अपनी चले यहां मनमानी।
आओ लल्लू, आओ पलल्लू, सुन लो नई कहानी।।


Thursday, September 13, 2007

प्यारे फूल





फूल फूल प्यारे फूल
कितने न्यारे प्यारे फूल

अपने आँगन में लगाओ
अपने बागों मे लगाओ

नन्हे प्यारे सुन्दर फूल
लाल, गुलाबी, नीले, पीले
है ये रंग बिरंगे फूल



कितने नाजुक कितने कोमल
है
ये एक डाल के फूल
काँटों में भी हँसते फूल
फूल फूल प्यारे फूल
कितने न्यारे प्यारे फूल


-रचना सागर
रचना तिथी : ०१.१०.१९९५





यह मेरी पहली रचना है
मै तो तब ८वीं कक्षा में थी


Wednesday, September 12, 2007

डाक्टर चूं चूं

आती है एक चिड़िया रोज़
गाती है एक चिड़िया रोज़
प्यार कुहू को करती है
कुछ सुनती, कुछ कहती है
दाना खूब चबाती है
चाकलेट नहीं खाती है

कुहू हुई नाराज़ बहुत
चिड़िया से ना बोले अब
मम्मी से भी कहती है
चिड़िया क्यों नही सुनती है
चूं चूं शोर मचाती है
चाकलेट नहीं खाती है

मम्मी बोलीं ,कुहू सुनो
चिड़िया से खुद बात करो
यूं नाराज़ नहीं रहना
चिड़िया से जाकर कहना
क्यों तुम मुझे रुलाती हो
चाकलेट नहीं खाती हो

चिड़िया आई कुहू के पास
बोली कुहू! ना रहो उदास
तुम हो मेरी फ़्रेंड कुहू
पर मैं हूं डाक्टर चूं चूं

चाकी ज़्यादा खाएंगे
दांत सभी गिर जाएंगे
तुम भी ज़्यादा मत खाना
डाक्टर का मानो कहना
फ़्रेंड का तुम मानो कहना
चूं चूं का मानो कहना


- प्रवीण पंडित