Monday, March 9, 2009

होली-कथा-काव्य - होलिका और प्रह्लाद

एक बार दानव था एक
करता रहता पाप अनेक
हिरणाक्शप था उसका नाम
स्वयं को समझे वो भगवान्
करता सब पर अत्याचार
देता निर्दोषों को मार
कहता बस मेरी हो पूजा
बिन मेरे ईश्वर न दूजा
जो भी उसका करता विरोध
ले लेता उससे प्रतिशोध
पर उसकी अपनी औलाद
नाम था जिसका भक्त प्रह्लाद
वही पिता को प्रभु न माने
एक नारायण को ही जाने
हिरणाक्शप ने बहुत समझाया
पर सुत को समझा न पाया
पर्वत की चोटी से गिराया
नागों के मध्य ठहराया
फिर भी सुत को मार न पाया
तो अपनी बहना को बुलाया
मिला था जिसको यह वरदान
अग्नि न ले सकेगी जान
जो वो अकेले ही जाएगी
आग भी नहीं जला पाएगी
पा वरदान हुई अभिमानी
बात भाई की उसने मानी
रहा न ठीक से वर भी याद
गोदि में ले लिया प्रहलाद
चली गई वो आग के अंदर
था प्रह्लाद के लिए वो मन्दिर
नारायण का लेता नाम
नहीं और कोई उसको काम
अग्नि भी उसे जला न पाई
पर होलिका की जान पे आई
भस्म हुई वह आग में जलकर
बचा प्रह्लाद नारायण जप कर
सत्य बचा और पाप जलाया
तब से होली दिवस मनाया

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होली के पावन पर्व की आप सबको बधाई एवम शुभ-कामनाएं


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5 पाठकों का कहना है :

Dr. Zakir Ali Rajnish का कहना है कि -

होली की हार्दिक शुभकामनाऍं।

Anonymous का कहना है कि -

वाह! सीमा जी आप कितनी आसानी से कथा को काव्य बना देती है!मेरे बेटे को भी पढ़कर बहुत अच्छा लगा!लिखती रहिये बधाई!

Anonymous का कहना है कि -

होली की सभी को बहुत-बहुत बधाई!

seema gupta का कहना है कि -

होली की हार्दिक शुभकामनाऍं।
regards

Divya Narmada का कहना है कि -

सीमा जी! होलिका की पारंपरिक कथा की पद्यात्मक प्रस्तुति बाल पाठकों को रुचिकर लगेगी. आपका प्रयास सराहनीय है.

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