Friday, March 13, 2009

होली आई

होली आई

हम बच्चों की मस्ती आई
होली आई होली आई ।
झूमें नाचें मौज करं सब
होली आई होली आई ।

रंग रंग में रंगे हैं सब
सबने एक पहचान पाई ।
भूल गए सब खुद को आज
होली आई होली आई ।

अबीर गुलाल उड़ा उड़ा कर
ढ़ोल बजाती टोली आई ।
अब अपने ही लगते आज
होली आई होली आई ।

दही बड़ा औ चाट पकोड़ी
खूब दबा कर हमने खाई ।
रसगुल्ले गुझिया मालपुए
होली आई होली आई ।

लाल हरा और नीला पीला
है रंगों की बहार आई ।
फागुन में रंगीनी छाई
होली आई होली आई ।

कवि कुलवंत सिंह


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2 पाठकों का कहना है :

सीमा सचदेव का कहना है कि -

कवि जी कविता पर अगर थोडी सी भी मेहनत और होती तो
कविता बहुत अच्छी बनती

Divya Narmada का कहना है कि -

कवि जी! हम कविता पढें, आप उडाएं माल.

यह कैसी होली कहें?, पाठक हैं बदहाल.

कुछ गुझिया भेजें हमें, पायें हम भी स्वाद.

तब ही कविता रह सके, श्रोताओं को याद.

मालपुए बिन लग रही, फीकी रचना मित्र.

अपने कुल में 'सलिल' का, करिए शामिल चित्र.

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