Monday, August 31, 2009

रस्सी-टप्पा

रस्सी-टप्पा, रस्सी-टप्पा,
आओ कूदें रस्सी-टप्पा एक तरफ से मैंने पकड़ा,
और दूजे से बिमला,
और बीच में कूदे सखियो,
जोर-जोर से कमला
अपनी-अपनी बारी ले कर,
सबने धूम मचाई,
पर सब सखियाँ भागी
घर कोजब मेरी बारी आई ,
रह गई बुलाती सखियों को
मैंलौट के वो न आई,
रह गई अकेली,
किससे खेलुँ,
ये बात समझ न आई

तब चुपके से बोली चिड़िया,
क्यों रोती है गुडिया,
मेरे पास है इस सब का,
इलाज बहुत ही बढ़िया ।

रस्सा ले कर खुद तुम कूदो,
खुद तुम मौज मनाओ,
कर सकती हो काम अकेले,
सखियों को ये दिखलाओ।
कल जब आयें लौट के सखियाँ,
भूल उन्हे जतलाओ,
सबसे पहले अपनी बारी,
कूदने की तुम पाओ
पर नहीं दिखाना उनको,
कर जैसे का तैसा,
बोयेगा जो जैसा पौधा,
फल पायेगा वैसा।

--डॉ॰ अनिल चड्डा


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5 पाठकों का कहना है :

Nikhil का कहना है कि -

मैंने रस्सी टप्पा नहीं खेला कभी....दीदी खेला करती थी....मैं देखा करता था...एक-दो बार कोशिश की तो टांग फंस गई रस्सियों में.....
कविता अच्छी है.....

Manju Gupta का कहना है कि -

चडड़ा जी आपने ने तो मेरा बचपन याद करा दिया . मैं तो रस्सी कूद में तब प्रथम आई थी .
बाल मनोविज्ञान से पूर्ण अति सुंदर रचना .बधाई .

Shanno Aggarwal का कहना है कि -

अनिल जी,
अच्छा विषय चुना.....'रस्सी-कूद' या 'रस्सी-टप्पा'. मंजू जी की तरह मैंने भी इसमें अपने बचपन में भाग लिया है......लेकिन अफ़सोस! की उनकी तरह कभी 1st नहीं आई.
कभी अकेले तो कभी दो सहेलियां रस्सी घुमाती थीं तो हम कई लोग इकठ्ठा साथ में कूदते थे. अब तो कूदने के बारे में सोच भी नहीं सकती. लेकिन अब आप ने बचपन का यह खेल याद दिला दिया जो दिमाग से उतर गया था और इसके लिये धन्यबाद.

डॉ० अनिल चड्डा का कहना है कि -

निखिलजी, मंजूजी एवँ शन्नोजी,

आपको रचना पसन्द आई, धन्यवाद । प्रोत्साहन के लिये आभारी हूँ ।

Shamikh Faraz का कहना है कि -

चड्डा जी आपने कविता के अंत में एक सीख भी दी है. यह बढ़िया तरीका लगा.

पर नहीं दिखाना उनको,

कर जैसे का तैसा,
बोयेगा जो जैसा पौधा,

फल पायेगा वैसा ।

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