अकड़ू - बकड़ू - बमबोले
अकड़ू - बकड़ू - बमबोले
थोडे बौडम, थोडे भोले
थोडे कड़क, थोडे पोले
लेकर चलते अपने झोले ।
तीनों रहते साथ साथ
जाडा गरमी हो बरसात
झगडा हो भले दिन रात
चोली दामन जैसा साथ ।
मेला पिकनिक यां सिनेमा
सैर सपाटा हो या ड्रामा
खरीदना हो पैंट पजामा
सदा संग लो चाहे आजमा ।
गांव से जब जी उकताया
शहर घूमने का मन आया
तीनों ने इक प्लान बनाया
अपने अपने घर बतलाया ।
शहर में पहुंचे ले सामान
ढ़ूंढ़ लिया फिर एक मकान
लेकिन हुआ गलती का भान
पैसे का था न नामोनिशान ।
सिर मुड़ाते पड़ गए ओले
उल्टे पैर गांव को लौटे
अकड़ू - बकड़ू - बमबोले
थोडे बौडम, थोडे भोले ।
कवि कुलवंत सिंह
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5 पाठकों का कहना है :
गाँव मे लौट के सबको बताया
शहर मे हमने समौसा खाया
देखा हमने सिनेमा घर
नही लगता हमको कोई डर
बँगला खरीदा हमने वहाँ पर
घर मे रखे नौकर चाकर
हाथ मे रखते थे मोबाईल
करते थे हमे सब स्माईल
पास थी अपने बडी सी गाडी
पर हम इतने नही अनाडी
गाँव छोड कर क्यो जाएँगे
तुम सबके सँग मिल के रहेन्गे
बहुत अच्छे कवि जी
बहुत बढिया कुलवंत जी और सीमा जी की आगे की कथा-कविता भी एक दम लाजावाब..
अच्छी कविता है कुलवन्त जी।
अरे पार्ट २ आपने पूरा कर दिया.. वाह वाह..
कवि कुलवंत जी ,
बहुत बढ़िया और
सीमा जी आपने भी खूब कही .
दोनों को बधाई
^^पूजा अनिल
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