पापा किचन में
पापा ने खाना बनाया
किचन को पूरा बिखराया
दाल को थोड़ा जलाया
तेल का तड़का लगाया ।
फुलके का आकार निराला
कहीं से कच्चा कहीं से काला
धुंआ घर भर में भर डाला
कुकर में दूधा उबाला ।
सब्जी का था बुरा हाल
नीचे काली ऊपर लाल
पापा की हालत बेहाल
माथे पर था एक सवाल ।
हंसी देखकर हमको आई
लेकिन चुपके से दबाई
पापा ने फटकार लगाई
खिसकने में थी भलाई ।
पापा को फोन पकड़ाया
होटल का नंबर घुमाया
खाने का आर्डर दिलवाया
मजे से हम सबने खाया ।
कवि कुलवंत सिंह
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10 पाठकों का कहना है :
कवि कुलवंत जी
आपने मेहनत से लिखी है बाल कविता , शायद बच्चो को रोमांचित भी करे या नही भी | न जाने क्यों मुझे नही जंचा ? बेशक मई बच्चा नही हूँ लेकिन जब भी हम कुछ भी लिखते है , टू उसमे रोमांच के साथ कोई संदेश भी होता है , पर क्षमा चाहूंगी आपकी यह कविता पढ़कर कुछ भी नही लगा | दूसरी बात मैंने जैसा महसूस किया है कि बाल-उद्यान बच्चो के लिए सार्थक साहित्य का समूह है , कोई हँसी खेल का मैदान नही | माँ- बाप के लिए जो इज्जत बच्चो के मन मी होती है , होनी चाहिए और एक बाल साहित्यकार का ध्येय भी यही होना चाहिए कि वो साहित्य के माध्यम से इस स्तर को ऊँचा उठा सके | लेकिन.......इसके आगे मैं कुछ नही कहूँगी....
कुलवन्त जी
पापा लोग किचन में एकदम यही हाल करते हैं। एक दम सही लिखा है।
कुलवंत जी,
एकदम रीयल लाइफ खाका खीँचा है आपने पापा के खाना बनाने का. मजेदार लगा.
बधाई.
पापा को किचन में घुसाया,
किचन की ऐसी-तेसी कराया,
पढकर हमको, बडा मजा आया।
आप सभी मित्रों का धन्यवाद.. सीमा जी आप की आदर्शवाद की बातें बहुत ही अच्छी लगीं...शायद मै भी एक अति आदर्शवादी एवं सत्यवादी ईंसान रहा हूँ... लेकिन फिर भी आप से इस बारे में कुछ बातें / तर्क करना चाहता हूँ... कभी google talk पर मिलिये..
kavi.kulwant@gmail.com
Kavi kulvant ji,
mujhe aapki aadarashvaadita aur satayavaadita par koi sndeh nahi hai . nishay hi aap ek bahut achche insaan aur achche witer hai aur kisi ki koi rachana jaisi mujhe lagati hai bina soche vahi tippani kar deti hoo .rachana koi bhi buri nahi hoti lekin har cheej desh,kaal aur vaatavaran ke anuroop hoti hai ,aur yahaa aap baal-saahitaykaar hai ,ek haasay kalaakaar ke liye yah rachana bahut achchi hai lekin as a teacher mai samajh sakati hoo ki agar aisi rachanaaayen class me bachcho ko padhaai jaayengi to kya jahaa par ham aadarash sikhaate hai vahaa ham kisi ko hansi ka paatar nahi bana rahe hai ?ek haasay-kalaakaar aur baal-saahitaykaar me yahi antar hota hai aur aapko bura laga to mai kshama chaahungi ,kyonki yah mere apane vichaar hai.
कवि कुलवंत जी ,
जब पापा किचन में आते हैं तो बुरा हाल हो ही जाता है , किचन का भी और खाने का भी , पर माफ़ कीजियेगा , सीमा जी का बाल दृष्टिकोण से टिप्पणी करना भी सही है, ये कविता पढ़कर कोई भी पापा अपना मजाक बनाना नहीं चाहेगा , और बच्चों के बालमन में बचपन से ही बडों के लिए सम्मान सिखाना आवश्यक भी है , कृपया आप इसे अन्यथा ना लें , आपकी रचना बुरी नहीं है अपितु छोटे बच्चों के लिए उपयुक्त नहीं है
^^पूजा अनिल
पापा को अगर खाना ढ़ंग से नही आता.. क्योंकि कभी कभार ही किचन में जाते हैं..क्योंकि माँ गृहस्थ है इसलिए रोज बनाती है.. लेकिन एक दिन पापा ने सोचा क्यॊं न मम्मी की सहायता की जाए... ऐसे में कविता जैसे हालात उत्पन्न होना बिलकुल सामान्य है । और बच्चे को अगर स्वाभाविक रूप से हंसी आ जाती है तो इसमें बच्चों के मन से बड़ों के प्रति सम्मान नही है ऐसा तो कहीं दृष्टिगोचर नही होता। हाँ, पापा के प्रति खुलेपन का और एक मित्रता का भाव जरूर दिखता है.... सीमा जी की बात को अन्यत्र लेने का सवाल ही पैदा नही होता न ही हमें एक दूसरे से क्षमा प्रार्थी होना है । यह तो एक विचार को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने की बात है । और कविता पर चर्चा तो एक सार्थक तत्व है।
कवि कुलवंत जी,
टिप्पणी को सार्थक तौर पर समझने के लिए धन्यवाद .
Kulwant ji,
aap ki yah kavita mere bete ne school ki 'kavita paath pratiyogita'[poem recitation] mein aaj sunayee thi aur khushi ki baat hai ki us ko dwitiya sthan prapt hua hai..
aap ki is kavita ke liye main aap ko dhnywaad aur abhar prakat karti hun.
sadar,
alpana verma
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