अतिथि बाल साहित्यकार- अनन्त कुशवाहा
अनन्त कुशवाहा, मुख्य रूप से एक चित्रकार हैं। वे एक कुशल चित्रकार, व्यंग्यकार, कवि एवं कहानीकार भी हैं। इसके अतिरिक्त वे लम्बे समय तक बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका "बालहंस" के संपादक रहे हैं। उन्होंने बच्चों के लिए अनेक कार्टून स्ट्रिप का भी सृजन किया है। उनके गढे हुए कार्टून "बालहंस" की जान होते थे।" "कवि आहत" और "ठोलाराम" उनके प्रसिद्ध कार्टून पात्र हैं।
आना मेरे गाँव, तुम्हें मैं दूँगी फूल कनेर के।
कुछ कच्चे, कुछ पक्के घर हैं, एक पुराना ताल है।
सड़क बनेगी सुनती हूं, इसका नम्बर इस साल है।
चखते आना टीले ऊपर कई पेड़ हैं बेर के।
आना मेरे गाँव, तुम्हें मैं दूँगी फूल कनेर के।
खडिया, पाटी, कापी, बस्ते, लिखना-पढ़ना रोज है।
खेलें-कूदें कभी न फिर तो यह सब लगता बोझ है।
कई मुखौटे तुम्हें दिखाऊंगी, मिट्टी के शेर के।
आना मेरे गाँव, तुम्हें मैं दूँगी फूल कनेर के।
बाबा ने था पेड़ लगाया, बापू ने फल खाए हैं।
भाई कैसे, उसे काटने को रहते ललचाए हैं।
मेरे बचपन में ही आए दिन कैसे अन्धेर के।
आना मेरे गाँव, तुम्हें मैं दूँगी फूल कनेर के।
हंसना-रोना तो लगता ही रहता है हर खेत में।
रूठे, कुट्टी कर लो, लेकिन खिल उठते हैं मेल में।
मगर देखना क्या होता है, मेरी चिट्ठी फेर में।
आना मेरे गाँव तुम्हें मैं दूँगी फूल कनेर के।
प्रस्तुति- जाकिर अली "रजनीश"
कुछ कच्चे, कुछ पक्के घर हैं, एक पुराना ताल है।
सड़क बनेगी सुनती हूं, इसका नम्बर इस साल है।
चखते आना टीले ऊपर कई पेड़ हैं बेर के।
आना मेरे गाँव, तुम्हें मैं दूँगी फूल कनेर के।
खडिया, पाटी, कापी, बस्ते, लिखना-पढ़ना रोज है।
खेलें-कूदें कभी न फिर तो यह सब लगता बोझ है।
कई मुखौटे तुम्हें दिखाऊंगी, मिट्टी के शेर के।
आना मेरे गाँव, तुम्हें मैं दूँगी फूल कनेर के।
बाबा ने था पेड़ लगाया, बापू ने फल खाए हैं।
भाई कैसे, उसे काटने को रहते ललचाए हैं।
मेरे बचपन में ही आए दिन कैसे अन्धेर के।
आना मेरे गाँव, तुम्हें मैं दूँगी फूल कनेर के।
हंसना-रोना तो लगता ही रहता है हर खेत में।
रूठे, कुट्टी कर लो, लेकिन खिल उठते हैं मेल में।
मगर देखना क्या होता है, मेरी चिट्ठी फेर में।
आना मेरे गाँव तुम्हें मैं दूँगी फूल कनेर के।
प्रस्तुति- जाकिर अली "रजनीश"

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7 पाठकों का कहना है :
अनन्त कुशवाह जी
बहुत ही बढ़िया लिखा है-
बाबा ने था पेड़ लगाया, बापू ने फल खाए हैं।
भाई कैसे, उसे काटने को रहते ललचाए हैं।
मेरे बचपन में ही आए दिन कैसे अन्धेर के।
आना मेरे गाँव, तुम्हें मैं दूँगी फूल कनेर के।
सरल शब्दों में बहुत ही प्यारी रचना।
अच्छी लगी रचना.
रचना इतनी लयात्मक है कि बरबस ही बार बार पढने को जी चाहता है और इतनी मनभावन कि हर बच्चे की जुबान पर सहज ही चढ जाये..
***राजीव रंजन प्रसाद
आना मेरे गाँव तुम्हें मैं दूँगी फूल कनेर के।
lay ke saath gaane me bahut mazedaar hai aapki kavita
कुशवाहा जी,
बहुत ही भावुक कविता कही है आपने. बहुत मनभावन.
जाकिर जी बधाई के पात्र हैं इस प्रस्तुति के लिये.
कुशवाहा जी,
बेहद सुंदर रचना है, कविता में प्रवाह बना हुआ है और बच्चों को ही नहीं बडों को भी प्यारी लगेगी.
बचपन में आपकी रचनाएँ बालहंस में पढ़ती थी ,आज फ़िर से एक लंबे अरसे बाद आपको पढ़ना सुखद रहा. बहुत बहुत बधाई
^^पूजा अनिल
बहुत ही लयबद्ध रचना है..
गुनगुनाने में आ रही है सहज ही..
बधाई
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