चीनू-मीनू
चीनू-मीनू दो सहेली
नहीं रहती थीं कभी अकेली
दोनों ही थीं बड़ी स्यानी
आओ सुनाऊं उनकी कहानी
दोनों पास-पास ही रहती
एक ही कक्षा में थी पढ़ती
चीनू को मिलता एक रुपैया
मीनू को भी एक रुपैया
दोनों ने सोचा कुछ मिलकर
पैसे जोड़ें सबसे छुपकर
दोनों ने इक-इक डिब्बा ढूँढ़ा
सबसे उसे छिपाकर रखा
आठ-आठ आना दोनों बचा के
रख देतीं वो सबसे छुपा के
दोनों ने जोड़े कुछ पैसे
बचा-बचा के जैसे-तैसे
स्कूल में कुछ बच्चे थे ऐसे
जिनके पास नहीं थे पैसे
न कॉपी, पेन्सिल न बसते
घर का काम वे कैसे करते?
टीचर उनको रोज पीटते
पर बच्चे थे, वे क्या करते?
चीनू-मीनू ने घर पे बताया
और पैसों का डिब्बा दिखाया
दोनों बच्चियाँ भोली-भोली
पैसे दे कर ये थी बोली
बच्चों के पास नहीं हैं पैसे
क्यों न उनको ले कर दे दें
कुछ कॉपी, पेन्सिल और बसते
ताकि पढें वो हँसते-हँसते
सबको उनका विचार भा गया
और सारा सामान आ गया
मिल गया बच्चों को सामान
बन गई माँ-बाप की शान
सबको उन पर गर्व हुआ था
उनका ऊँचा नाम हुआ था
-सीमा सचदेव

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7 पाठकों का कहना है :
सीमा जी ,
चीनू-मीनू के जरिये आपने बच्चों को जो परोपकार की भावना का संदेश दिया है, वो बहुत ही अच्छा लगा , बहुत सुंदर कहानी कही है आपने कविता रूप में . बधाई
^^पूजा अनिल
सीमा जी,
अच्छी सन्देशप्रद रचना है..
चीनू मीनू के माध्यम से
very nice seema ji..
बहुत अच्छे
आलोक सिंह "साहिल"
सुंदर कविता सीमा जी
बहुत सुंदर कविता है सीमा जी
सीमा जी,
बच्चों को बचत करने और अपनी चीजों को दूसरों के साथ बाँटने का संदेश देती आपकी कविता बहुत ही अच्छी लगी.
बधाई.
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