धरती का श्रंगार
भूल गया पेड़ों का दान
मानव क्या इतना नादान
काट काट कर जंगल नाश
खुद अपना कर रहा विनाश
स्वार्थ बना है इसका मूल
गुड़ पेड़ के गया है भूल
यही हैं देते प्राण वायु
इनसे मिलती लंबी आयु
करते अपना यह उपचार
करते हम पर यह उपकार
तरह तरह के देते फूल
कम करते यह मिट्टी धूल
औषधि का देते सामान
हम भूले इनकी पहचान
कैसा है अधुना इनसान
रखें याद न सृष्टि विधान
मानवता से कैसा वैर
काट रहा खुद अपने पैर
साध रहा बस अपने स्वार्थ
भूल गया है यह परमार्थ
पेड़ों की हम सुनें पुकार
बंद करें अब अत्याचार
यह हैं धरती का श्रॄंगार
इनसे ही जीवन साकार
कवि कुलवंत सिंह
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4 पाठकों का कहना है :
वाकई वृक्ष (पेड़ )हमारी धरती का श्रृंगार है ,कुलवंत जी की कविता शिक्षा प्रद है |
Bahut hi sundar shikshaprad kavita.
प्रेरक..
पेडों से धरती सजती है ये सही है .धरती जो सजाये रखना है
सादर
रचना
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