जब मैं छोटा बच्चा था... (भाग-1)
बड़ा सलोना नाजुक प्यारा सुन्दर सा मन ।
भोला भाला नटखट सा होता है बचपन ॥
एक शाम मैं छत पर बैठा था यूं अकेला ।
सहसा बचपन कि यादों ने आकर घेरा ॥
बोलीं जब से तरुण हुये हो भूल गए हो ।
मस्त जवानी की बाँहों में झूल रहे हो ॥
याद करो वो वक़्त गुजरा था जो संग संग ।
भोला भाला ..................
फिर एक नन्हीं याद मुझे यूं लगी बताने ।
लिया दाखिला और लगे हम स्कूल जाने ॥
रास्ते के उन बाग़ बगीचों में घुस जाना ।
छुप छुप कर के चोरी से फल फूल चुराना ॥
भर लेना बस्ते में फिर खाना रस्ते में ।
इसी तरह यूं उछल कूद में स्कूल जाना ॥
दौडे घर को ज्यूँ सुनी घंटे की टन टन ।
भोला भाला ..................
फिर एक नटखट याद ने झकझोरा मुझको ।
बोली बेटा भूल गया, या याद है तुझको ॥
टीका टीक दोपहरी छत पर पतंग उडाना ।
कट गयी कट गयी कहकर कितना शोर मचाना ॥
एक दिन ग़ुस्सा आया देखो माँ को हमारी ।
छप्पर में जो रखीं थी पतंग फाड़ दीं सारी ॥
फिर तो हमने जा रसोई में फेंके बरतन ।
भोला भाला .................
हुए बडे तो साइकिल ने मन को लुभाया ।
और साइकिल सीखने का मन कर आया ॥
छुपके से पापा कि साइकिल बहार लाए ।
आज मिला है मौका मन ही मन हर्षाये ॥
जैसे ही चढ़ साइकिल हमने पैडल मारे ।
साइकिल पडी थी बीच सड़क हम पडे किनारे ॥
कोई देख ना ले फुर्ती से उठ गए फ़ौरन ।
पर घुटने कुहनी हाथ हथेली छिल गए सारे ॥
हफ़्तों तक दुखती रही अपनी ये गर्दन ।
भोला भाला ...................
जब भी आता था गांव में कोई ट्रक हमारे ।
वहीँ इखट्ठे हो जाते सारे के सारे ॥
सैलेंसर से ले कलोंची मूछ बनाना ।
हां हां हां हां में रावन हूँ यूं चिल्लाना ॥
ड्राइवर कि नज़र चूकते गोबर लाना ।
ढेले - पत्थर सैलेंसर में फिर भर जाना ॥
होते ही स्टार्ट ट्रक के चल पड़ती थी ।
फट फट करके वो अलबेली गोबर की गन ॥
भोला भाला ..................
लो फिर एक याद उठकर यूं मुझसे बोली ।
कितना लड़ते थे खेलते थे जब गोली ॥
ऊँगली में लिए कंचा, लिए कंचों का निशाना ।
पिल पिल्चापिट पिल पिल्चापिट कहते जाना ॥
गुल्ली-डंडा चोर-सिपाही हाकी क्रिकेट ।
और बहुत से खेल और बस उनकी ही धुन ॥
भोला भाला .....................
- यादें और भी हैं मगर अगली बार...
अभी के लिये सब बच्चों को बहुत बहुत प्यार..
-राघव
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6 पाठकों का कहना है :
राघव जी,
बहुत सुंदर कविता...
बस... बचपन की याद दिला दी...
धन्यवाद
भाई, भुपेंदर जी , आपने तो बचपन की याद ही दिला दी.
झक्कास...........
मुबारक हो.
आलोक सिंह "साहिल"
बहुत सुंदर लगी आपकी यह रचना राघव जी ..बचपन सच में ऐसा ही होता है ..बहुत अच्छी है यह :)
राघव जी
बहुत ही प्यारी स्मृतियाँ प्रस्तुत की हैं आपने । आनन्द आ गया । इतना अच्छा लिखने के लिए बधाई
राघव जी ,
आप की यह विशेषता है कि आप अपने संस्मरणों को सरल कविता में बड़ी आसानी से ढाल लेते हैं.और पढने वाले को भी पूरा आनंद आता है.
''छुप छुप कर के चोरी से फल फूल चुराना ॥
भर लेना बस्ते में फिर खाना रस्ते में ।''
और --
''कोई देख ना ले फुर्ती से उठ गए फ़ौरन ।
पर घुटने कुहनी हाथ हथेली छिल गए सारे ॥''
कविता पढ़ कर समझ आता है कि आप बहुत शरारती रहे होंगे-
बहुत मजेदार कविता है.अच्छी यादें हैं.
धन्यवाद.
रास्ते के उन बाग़ बगीचों में घुस जाना ।
छुप छुप कर के चोरी से फल फूल चुराना ॥
छप्पर में जो रखीं थी पतंग फाड़ दीं सारी ॥
फिर तो हमने जा रसोई में फेंके बरतन ।
सैलेंसर से ले कलोंची मूछ बनाना ।
हां हां हां हां में रावन हूँ यूं चिल्लाना ॥
ड्राइवर कि नज़र चूकते गोबर लाना ।
ढेले - पत्थर सैलेंसर में फिर भर जाना ॥
होते ही स्टार्ट ट्रक के चल पड़ती थी ।
फट फट करके वो अलबेली गोबर की गन ॥
क्या बात है राघव जी!
आपकी इस रचना को पढकर बचपन के दिन याद आ गए। ऎसे हीं लिखते रहें।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक
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