चाँद पे होता घर जो मेरा
बच्चो,
आप सभी तो सीमा सचदेव से परिचित हो ही चुके हैं, आज हम उन्हीं की एक कविता लेकर आये हैं। ज़रूर बताइएगा कि कैसी लगी?
चाँद पे होता घर जो मेरा
चाँद पे होता घर जो मेरा
रोज़ लगाती मैं दुनिया का फेरा
चंदा मामा के संग हँसती
आसमान में ख़ूब मचलती
ऊपर से धरती को देखती
तारों के संग रोज़ खेलती
देखती नभ में पक्षी उड़ते
सुंदर घन अंबर में उमड़ते
बादल से मैं पानी पीती
तारों के संग भोजन करती
टिमटिमाटे सुंदर तारे
लगते कितने प्यारे-प्यारे
कभी-कभी धरती पर आती
मीठे-मीठे फल ले जाती
चंदा मामा को भी खिलाती
अपने ऊपर मैं इतराती
जब अंबर में बादल छाते
उमड़-घुमड़ कर घिर-घिर आते
धरती पर जब वर्षा करते
उसे देखती हँसते-हँसते
मैं परियों सी सुंदर होती
हँसती रहती कभी न रोती
लाखों खिलौने मेरे सितारे
होते जो है नभ में सारे
धरती पर मैं जब भी आती
अपने खिलौने संग ले आती
नन्हे बच्चों को दे देती
कॉपी और पेन्सिल ले लेती
पढ़ती उनसे क ख ग
कर देती मामा को भी दंग
चंदा को भी मैं सिखलाती
आसमान में सबको पढ़ाती
बढ़ते कम होते मामा को
समझाती मैं रोज़ शाम को
बढ़ना कम होना नहीं अच्छा
रखो एक ही रूप हमेशा
धरती पर से लोग जो जाते
जो मुझसे वह मिलने आते
चाँद नगर की सैर कराती
उनको अपने घर ले जाती
ऊपर से दुनिया दिखला कर
चाँद नगर की सैर करा कर
पूछती दुनिया सुंदर क्यों है?
मेरा घर चंदा पर क्यों है?
धरती पर मैं क्यों नहीं रहती?
बच्चों के संग क्यों नहीं पढ़ती?
क्यों नहीं है इस पे बसेरा ?
चाँद पे होता घर जो मेरा?
सीमा सचदेव
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10 पाठकों का कहना है :
बहुत सुन्दर विचार है। आपकी कविता पढकर मेरे मन में भी ख्याल आ रहा है कि काश मेरा भी चाँद पर घर होता। प्यारी की कविता के छोटी सी बधाई।
चाँद पे होता घर जो मेरा
रोज़ लगाती मैं दुनिया का फेरा
चंदा मामा के संग हँसती
आसमान में ख़ूब मचलती
"वाह वाह आप की कवीता ने टू एक सुंदर सपना जगा दिया हमारी भी आँखों मे, काश .......... पर ये काश , काश ही रह जाता है.... " बहुत सुंदर.
Regards
अति सुंदर..
बहुत अच्छे,सचदेव जी
आलोक सिंह "साहिल"
हा हा हा बहुत सुन्दर कविता
चलो चाँद पर दिल छोटा क्यू करते हो आप..
चलो चाँद पर प्लाट कटे हैं
धरती वालों को भी बँटे हैं
मैने कुछ बुक करवाये हैं
नीव वगेराह भर आये हैं
कल जाकर रोड़ी लानी हैं
सीमेंट भी कुछ मँगवानी है
सबके लिये घर बनवऊँगा
तुम सबको वहीं बुलवाऊँगा
काश वाश नही मुझको सुनना
सपनों की चादर नहीं बुनना
सच में सबको ले जाना है
ये दिल मे मैने ठाना है
हो जाओ तैयार, चलेंगे
चाँद पर जाकर सब उछ्लेंगे.
अगर किसी ने मना किया तो
मैं भी गुस्सा हो जाउँगा
किसी को भी नहीं जाने दुँगा
और चाँद तोड़्कर ले आऊँगा..
चाँद पे होता घर जो मेरा
रोज़ लगाती मैं दुनिया का फेरा
चंदा मामा के संग हँसती
आसमान में ख़ूब मचलती'
वाह जी वाह सीमा जी !लगता है आपने मेरे मन की बात कह दी....मैं भी सोचती हूँ कि काश चाँद पर घर होता! बहुत ही प्यारी कविता --इस में तो बडों के भीतर के बच्चे को जगाने की क्षमता है!और हाँ भूपेंदर जी की टिप्पणी में लिखी कविता भी बहुत मजेदार है.
बहुत सुंदर कविता है यह ..चाँद पर घर की बात ही बहुत अच्छी लगती है :)
जाकिर जी,सीमा जी,कवि कुलवन्त,साहिल ,भुपेन्द्र ,अल्पना ,रञ्जू जी आप सबको कविता पसन्द आई ,जानकर अच्छा लगा ,आप्की सुन्दर तिप्पणी के लिए धन्यवाद |भुपेन्द्र जी आपकी पन्क्तियाँ बहुत अच्छी लगी...धनयवाद.....सीमा
सीमा जी की
धरती पर से लोग जो जाते
जो मुझसे वह मिलने आते
चाँद नगर की सैर कराती
उनको अपने घर ले जाती
उपरोक्त पंक्तियाँ
एवं
राघव जी की निम्न पंक्तियाँ
अगर किसी ने मना किया तो
मैं भी गुस्सा हो जाउँगा
किसी को भी नहीं जाने दुँगा
और चाँद तोड़्कर ले आऊँगा..
मुझे बेहद पसंद आईं।
दोनों को बधाई।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
सीमा जी आपकी कविता बच्चो का बहुत मन बेह्लाएगी
बहुत अच्छे
बादल से मैं पानी पीती
तारों के संग भोजन करती
टिमटिमाटे सुंदर तारे
लगते कितने प्यारे-प्यारे
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